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________________ वीर सम्वत् १००० से उत्तरवर्ती प्राचार्य ] [ ७५५ राजा भोज ने अनुरोधपूर्ण प्राग्रह के साथ धनपाल से कहा-"कवीश्वर ! मेरे कहने से तुम यदि इस ग्रन्थरत्न में इस प्रकार परिवर्तन कर दोगे तो तुम्हारा यह ग्रन्थरत्न जब तक चन्द्र और सूर्य हैं तब तक इस घरा पर अमर रहेगा।" धनपाल भोज का बालसखा था। उसे शैशवकाल से ही राजा मुंज का भोज के समान ही स्नेहसिक्त दुलार मिला था और सम्यक्त्व में उसकी अटूट आस्था थी अतः उसने निर्भीक स्वर में कहा--"राजन् ! इस प्रकार के परिवर्तनों से इस ग्रन्थ की वही दशा होगी जो सद्यःस्नात कर्मकाण्डी ब्राह्मण के होथे पर रखे दुग्धपात्र में सुरा की एक बूंद डालने से होती है। ऐसी दशा में इस प्रकार के परिवर्तन इस ग्रन्थ में नहीं किये जा सकते । नरेश्वर ! इस प्रकार के परिवर्तन से किये गये अपवित्रीकरण का दुष्परिणाम यह होगा कि मेरे कुल, आपके राज्य और राष्ट्र की महती क्षति होगी।" अपने अनुरोध के इस प्रकार ठुकरा दिये जाने पर राजा भोज की क्रोधाग्नि बड़े ही उग्र रूप से भड़क उठी। उसने तत्काल कर्पूरमंजरी नामक उस अपूर्व ग्रन्थ को अपने पास ही रखी हुई अंगीठी की जाज्वल्यमान ज्वालाओं में डाल दिया। सब के देखते ही देखते वह ग्रन्थरत्न जल कर भस्मीभूत हो गया। . इस घटना से धनपाल के हृदय को गहरा आघात लगा। उसके मुख से आक्रोशमिश्रित निराशापूर्ण केवल ये ही शब्द निकले–“ो राजा भोज ! तू वास्तव में पक्का मालवीय है। तुमने अपने कपटपूर्ण व्यवहार से धनपाल को भी निर्लिप्त नहीं छोड़ा, किसी अन्य की तो तुम्हारे समक्ष गणना ही क्या है। काव्यकृति के प्रति इस प्रकार की निष्ठरता और स्वजनों की वंचना-ये दो दोष तुम्हारे अन्दर कहांसे आ गये हैं ? "" राजा के समक्ष अपना आक्रोश इन शब्दों में अभिव्यक्त कर धनपाल राजसभा से बाहर निकल गया और अपने घर आकर शोकाकुल मुद्रा में एक ओर शय्या पर लेट गया। अपनी कृति के इस प्रकार जला दिये जाने से उसको ऐसी असह्य पीड़ा हो रही थी कि न तो उसने स्नान किया, न देवार्चन किया, न अपने परिवार के किसी भी सदस्य से बात ही की और न भोजन का नाम तक ही लिया। निद्रा तो मानो उससे कोसों दूर भाग गई थी। बिना ऊष्णीश के ही शय्या पर गोंधे मुख लेटा हुआ चिन्तासागर में गहरे गोते लगाने में निमग्न था । धनपाल की इस प्रकार प्रदष्टपूर्व मनःस्थिति देख कर उसके परिवार के सभी सदस्य अवाक् बने ' मालविनोसि किमन्नं मन्नसि कव्वेण निव्वुई तंसि । धरणवालं पि न मुचसि पुच्छामि सवंचणं कत्तो ॥२१॥ –प्रभावकचरित्र, पृष्ठ १४६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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