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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - भाग ३
हूं कि पिता की प्राज्ञा के पालन से बढकर पुत्र के लिये और कोई धर्म नहीं है । पिता की आज्ञा पालन में में करणीय अथवा अकरणीय का विचार नहीं करता । प्राप चाहें तो मुझे कुए में फेंक सकते हैं और चाहें तो नरभोजी क्रूर मानवों तक को समर्पित कर सकते हैं । "
यह सुनते ही सर्वदेव ने शोभन को अपने वक्षस्थल से लगा लिया । उसने कहा :- " वत्स ! मुझे एक ऋण से मुक्त करके मेरा उद्धार कर दो ।"
तदनन्तर सर्वदेव ने अपने पुत्र शोभन को महेन्द्रसूरि के साथ हुई प्रतिज्ञा श्रौर उस प्रतिज्ञा की पूर्ति के लिये अपने दो पुत्रों में से एक पुत्र को उन्हें सदा के लिये शिष्य के रूप में दे देने की बात कही ।
यह सुनते ही शोभन के हर्ष का पारावार नहीं रहा । वह बोला :- तात ! यह कार्य तो मुझे प्रिय से प्रियतर है । ये जैन मुनि तो तपोपूत त्याग की कान्ति से प्रकाशमान् और अहिंसा सत्य अस्तेय श्रादि महान् व्रतों के धारक हैं और महान् सत्वशाली होते हैं । उनके चरणों की सेवा करने का सौभाग्य पूर्व जन्माचित महान् पुण्यों के प्रताप से ही प्राप्त होता है । प्राणी मात्र पर अनुकम्पा करना ही वस्तुतः सच्चा धर्म है । और यह साकार धर्म उन जैन मुनियों के अन्दर ही विद्यमान है । उनके चरणों में दीक्षित होने के स्वर्णिम अवसर को छोड़कर ऐसा कौन मूर्ख होगा जो यह करना है वह करना है तो यह भी करना है और वह भी करना है इस प्रकार की चिन्ता से रात-दिन मानव को चिन्ता की ज्वाला में जलाते रहने वाले विषय-वासनाओं के घोर पंकिल आवास गृहस्थावास में रहना पसन्द करेगा । भईया तो दोनों ओर से डरते हैं । अपनी प्रारण प्रिया पत्नी धनश्री से और सभी प्रकार की भोग्य वस्तुओं के विद्यमान होते हुए भी उसमें अपनी असन्तोष वृत्ति से । हे तात ! किसी कन्या के साथ सम्बन्ध में श्राबद्ध कर दिये जाने के अनन्तर मेरी भी इसी प्रकार की दुर्गति श्रवश्यम्भाविनी है। ऐसी दशा में मुझे जो कार्य सबसे अधिक प्रिय है- श्रमरणधर्म में दीक्षित होने का उसके लिये श्राप शीघ्र ही मुझे अनुमति क्यों नहीं प्रदान करते हैं । इसलिये चिन्ता का परित्याग कर उठिये, स्नान देवार्चन वैश्वदेवादिकी क्रियाओं से निवृत्त होकर भोजन कीजिये और उसके पश्चात् शीघ्र ही मुझे ले जाकर उन महान् जैनाचार्य महेन्द्र सूरि के कोड में समर्पित कर दीजिये जिससे कि मैं उन पूज्य पुरुषों की चरण सेवा करके अपने जन्म को सार्थक करू । अपने इस जन्म को पवित्र करू ।"
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अपने छोटे पुत्र शोभन की इस बात को सुनते ही देवोत्तम सर्वदेव के लोचन युगल आनन्दानों से श्रोतप्रोत हो छलक उठे । उसने अपने पुत्र का प्रगाढ आलिंगन किया । उसके मस्तक को सूंघा । तदनन्तर सभी आवश्यकीय क्रियाओं से निवृत्त होकर अपने पुत्र शोभन के साथ महेन्द्रसूरि की सेवा में उपस्थित होकर
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