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वीर सम्वत् १००० से उत्तरवर्ती आचार्य ]
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the Arabs. Apart from these claims, authenticated by contemporary records, we have traditions about several Indian rulers as having defeated the Mlechchhas, and some of them at any rate refer probably to the Arab invaders of this period. It is also admitted in the Arab chronicles that under Junaid's successor Tamin, the Muslims lost the newly conquered territories and fell back upon Sindh. Even here their position became insecure. According to Arab chronicles, 'a place of refuge to which the Muslims might flee was not to be found,' and so the governor of Sindh built a city on the further side of the lake, on which later the City of Mansurah stood, as a place of refuge for them. It is thus clear that the period of Confusion in the Caliphate during the last years of the Umayyads also witnessed the decline of Islamic power in India. 1
ईसा की आठवीं शताब्दी के प्रारम्भिक चार दशकों के इतिहास के पर्यालोचन से यह तथ्य प्रकाश में आता है कि जो अरब शक्ति टर्की, ईराक, ईरान, अफगानिस्तान आदि देशों में प्रचण्ड प्रांधी की तरह बड़े वेग से इन राष्ट्रों पर अपना आधिपत्य स्थापित करती हुई बढ़ती ही गई, वह चालुक्य वंशी कन्नौज राज यशोवर्मन, काश्मीर के राजा ललितादित्य, प्रतिहार वंशीय राजा नागभट्ट (द्वितीय) दक्षिण गुजरात के राज्यपाल चालुक्यवंशीय पुलकेशिन आदि-आदि भारतीय वीरों की फौलादी दीवार से टकराकर चकनाचूर हो गई ।
मराज के जीवन की प्रमुख घटनाओं और उसके धार्मिक कार्य कलापों का बप्पभट्टीसूरि के इतिवृत्त में परिचय दे दिया गया है। अपनी आयु के केवल ६ मास अवशिष्ट रहने पर ग्रामराज ने बप्पभट्टी के साथ तीर्थयात्रा प्रारम्भ की । अनेक तीर्थों की यात्रा करने के पश्चात् मागघ तीर्थ की, नाव में बैठ कर यात्रा करते समय मगटोड़ा नामक ग्राम के पास आमराज ने जिनेन्द्रप्रभु की शरण ग्रहण कर बप्पभट्टी से पंच परमेष्टि नमस्कार मन्त्र का श्रवरण करते हुए गंगा की धारा के प्रवाह के मध्य भाग में नौका में ही वि० सं० ८६० की भाद्रपद शुक्ला ५ के दिन अपनी इहलीला समाप्त की । मगटोड़ा ग्राम में ही ग्रामराज की मोर्ध्वदेहिकी क्रियाएं सम्पन्न की गईं ।
आमराज के पश्चात् उसका पौत्र मिहिरभोज कान्यकुब्ज के राजसिंहासन पर (वि० सं० ८६० में ) बैठा । मिहिरभोज भी परम श्रद्धानिष्ठ जैन राजा था । इसने अपने जीवन काल में जैन धर्म के प्रचार-प्रसार और श्रभ्युदय-अभ्युत्थान के लिए अनेक उल्लेखनीय कार्य किये । मिहिरभोज ने तप्पभट्टी के दो पट्टधरों में से एक पट्टधर प्राचार्य गोविन्दसूरि को अपनी राजसभा में राजगुरु के रूप में रखा ।
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Fhe Classical Age, page 173
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