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________________ [ जैन धर्म का मोलिक इतिहास - भाग ३ इस प्रवचूरि के रचयिता धर्मघोष वि. सं. १३२७ से १३५७ तक अर्थात् ३० वर्ष तक प्राचार्य पद पर रह कर स्वर्गस्थ हुए। यहां एक बात विचारणीय है, वह यह है कि वल्लभी का अन्तिम भंग अथवा अन्तिम पतन अनेक इतिहासविदों ने वि. सं. ८४५ के लगभग अनुमानित किया है और शान्तिसरि का स्वर्गवास विक्रम सं. १०६६ में हा। इस प्रकार की स्थिति में अपने स्वर्गस्थ होने से २५१ वर्ष पूर्व हुए वल्लभी भंग से प्रपीड़ित वल्लभी के संघ की किसी प्रकार की सहायता की हो, इस बात की तो कल्पना तक भी नहीं की जा सकती। यह संभव हो सकता है कि विक्रम सं. १०५० से १०६६ के बीच की अवधि में वल्लभी के जैन संघ पर किसी प्रकार का संकट आया हो और उस संकटकाल में वादिवैताल शान्ति सरि ने वल्लभी के संघ की सहायतार्थ कठोर परिश्रम किया हो। विक्रम की ६१५, भाद्रपद शुक्ला ५ बुधवार, स्वाति नक्षत्र में, जिस समय नागौर में ग्वालियर के महाराज आम के पौत्र महाराज भोजदेव का राज्यकाल था उस समय थारपद्रगच्छ के प्राचार्य जयसिंह सरि (कृष्णषि के शिष्य) ने अपनी १८ गाथात्मक धर्मोपदेश माला और उस पर ५७७८ श्लोक प्रमाण स्वोपज्ञ वृत्ति का निर्माण किया । वत्ति की प्रशस्ति में उन्होंने थारपद्र गच्छ के संस्थापक बटेश्वरसरि से प्रारम्भ कर स्वयं तक की अपने गच्छ (थारपद्रगच्छ) की पावली दी है। उस पावली में जयसिंहसरि ने बटेश्वरसूरि को देवद्धिगणि क्षमाश्रमण की स्थविरावली का आचार्य और क्षमाश्रमण विरुदधर बताया है। थारपद् गच्छ के संस्थापक प्राचार्य बटेश्वर थे, इस लिए इस गच्छ का अनेक स्थानों पर बंटेश्वर गच्छ और थारपद्र गच्छ इन दोनों नामों से उल्लेख किया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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