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वीर सम्वत् १००० से उत्तरवर्ती प्राचार्य ]
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अभिलेख से श्री उद्योतन सूरि के दो शिष्यों के नाम प्रकाश में आये हैं। यह सर्वधातुनिर्मित जिनेश्वर की मूर्ति गांधारणी ग्राम के तालाब पर अवस्थित जिनमन्दिर में उपलब्ध हुई है । वह मूर्ति अभिलेख अक्षरश: इस प्रकार है
:
(१) श्रोम् || नवसु शतेष्वव्दानां । सप्ततं (त्रि) शदधिकेषु । श्रीवच्छलांगलीभ्यां ज्येष्ठार्याभ्यां
(२) परम भक्त्या ॥ नाभेयजिनस्यैषा || प्रतिमा षाढार्द्धनिष्पन्ना श्रीम(३) तोरण कलिता । मोक्षार्थं कारिता ताभ्यां ॥ ज्येष्ठार्यपदं प्राप्तौ । द्वावपि
(४) जिनधर्म वच्छलौ ख्यातौ । उद्योतन सूरेस्तो शिष्य श्री वच्छ- बल देवी ॥ (५) सं० ४३७ प्राषाढ़ावें ।
प्रर्थात् - प्रोम् । संवत् ६३७ के आधे श्राषाढ़ के व्यतीत हो जाने पर (अनुमानतः प्राषाढ़ शुक्ला प्रतिपदा के दिन -क्योंकि अमावश्या इस प्रकार के श्रेष्ठ कार्यों में वर्जित मानी गई है) ज्येष्ठार्य (संभवतः वाचक) श्री वत्स और लांगली (बलदेव का अपर नाम लांगली - हलघर ) ने उत्कृष्ट भक्ति से तोरण सहित इस प्रादिनाथ ऋषभदेव का निर्माण मुक्ति की अभिलाषा से करवाया। इन दोनों मुनियों ने ज्येष्ठार्य पद (संभवतः वाचक पद) प्राप्त किया और जिनधर्मवत्सल के रूप में ख्याति को प्राप्त हुए। वे दोनों श्रीवत्स और बलदेव श्री उद्योतन सूरि के शिष्य थे । संवत् ६३७ प्राषाढ़ार्द्ध में ।
उद्योतन सूरि की पट्टावली में इन ( उद्योतन सूरि) का वि० सं० ६६४ में स्वर्गस्थ होने का उल्लेख उपलब्ध होता है । उद्योतनसूरि प्राचार्य पद पर किस आसीन हुए इसका कोई उल्लेख पट्टावली में उपलब्ध नहीं होता । इस प्रभिलेख से यह तो निश्चित रूपेरण सिद्ध हो जाता है कि उद्योतन सूरि वि० सं० ६३७ में प्राचार्य पद पर अधिष्ठित थे और इससे कुछ कम प्रथवा अधिक समय पूर्व ही प्राचार्य पद प्राप्त कर चुके थे ।
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