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________________ ३५८ ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३ महत्वपूर्ण एवं उत्कृष्ट धार्मिक कृत्य मान लिया गया था। उस लोकप्रिय बनी हुई परिपाटी के सम्बन्ध में महानिशीथ का यह आख्यान बड़ा ही चिन्तनीय और मननीय है जिसमें, गुरु द्वारा तीर्थयात्रा का निषेध किये जाने के उपरान्त भी गुरु की प्राज्ञा का उल्लंघन करके तीर्थ यात्रा के लिये जाने वाले ४६६ साधुओं को अनन्त काल तक भव भ्रमण करने वाला बताया गया है। इसके विपरीत तीर्थयात्रा का (मिलापकों के समय) निषेध करने वाले आर्य वज्र को और उनके समझाने पर तीर्थ यात्रा से विरत हुए शिष्य को विशुद्ध संयम के पालन के परिणामस्वरूप सिद्ध बुद्ध और मुक्त होना बताया गया है। द्रव्य परम्पराओं के उत्कर्ष काल में चैत्य निर्माण, चैत्य पूजा और नियत निवास की क्रियाएं जैन धर्मसंघ में लोकप्रिय होने के साथ-साथ जनमानस में गहराई से घर कर गई थी। एक प्रकार से रूढ हो गई थी। विशुद्ध श्रमणाचार किस प्रकार का होता है, निरतिचार पंच महाव्रतों का पालन करने वाला श्रमण परम्परा का प्रतीक स्वरूप श्रमण कैसा होता है, चैत्य निर्माण में इस प्रकार के श्रमणत्व के पतीक श्रमण का क्या कर्तव्य है, इन सब बातों पर महानिशीथ में बड़े ही प्रभावकारी शब्दों में प्राचार्य कुवलयप्रभ (कमलप्रभ अथवा सावधाचार्य) के आख्यान में काश डाला गया है । इस अत्यन्त महत्वपूर्ण आख्यान के सम्बन्ध में चैत्यवासी परंपरा का परिचय देते हुए पिछले प्रकरण में पर्याप्त प्रकाश डाला जा चुका है। अतः इस पर कुछ अधिक न कहकर सभी दृष्टियों से अत्यन्त महत्वपूर्ण एवं अत्यावश्यक प्रसंगोचित समझकर सावधाचार्य के उस प्रकरण का मूल पाठ भी इतिहासविदों एवं जिज्ञासुओं के विचारार्थ यहां उद्धृत किया जा रहा है, जो इस प्रकार है : देवार्चन पर सावधाचार्य सम्बन्धी उद्धरण "से भयवं के जे ण केइ पायरिय इवा मयहरं इ वा असई कहि च कयाई वे (त) हा विसह विहारणगमासज्ज इणमो निग्गंथ पवयणमनहा पन्नविज्जा, से णं कि पाविज्जा ? गोयमा ! जं सावज्जायारियेणं पावियं । से भयवं कयरेणं ? से सावज्जायरिए किं वा तेणं पावियंति ? गोयमा ! णं इरो पउ उसभादि तित्थकर चउवीसगाए अणंतेणं कालेणं जा अतीता अन्ना चउवीसमां ताये जारिसो ग्रह यं तारिसो चेव सत्तरयणी पमाणे णं जगच्छरय भूमो देविद विद वंदिरो पवरवर धम्मसिरी नाम चरिम धम्मतित्थंकरो अहेसि । तस्स य तित्थे सत्र अच्छेरगे पभूए । ग्रहन्नया परिनिव्वुड़स्स णं तित्थंकरस्स कालक्कमेणं असंजयाणं सक्कारकारवणेणामच्छेरगे बहिउमारेहे । तत्थ णं लोगागावत्तीए मिच्छत्तोवहयं असंजय पूयारगरयं बहजण समूहे ति वि यायाणि ऊण तेणं कालेणं तेणं समयेणं अभूरिणय समय पभावेहि तिगारव मइएमोहिपहि गाममित्त प्रायरिय मयहरेहि महाईणं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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