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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - भाग ३
परित्याग कर रामानुजाचार्य के उपदेशों से वैष्णव बना होता तो यह निश्चित था कि विष्णुवर्द्धन के अनन्य आत्मीयों, रानी, पुत्र, पुत्रियों आदि में से अथवा उसके सदा निकट सम्पर्क में रहने वाले मन्त्रियों, सेनापतियों आदि में से किसी न किसी ने तो अवश्यमेव ही बैष्णव धर्म अंगीकार किया होता । परन्तु वस्तुस्थिति पूर्णतः इसके विपरीत है । विष्णुवर्द्धन के अनन्य श्रात्मीयों-पत्नी, पुत्र, पुत्रियों और उसके कृपापात्र - विश्वासपात्र श्राश्रितों अथवा अधिकारियों - मन्त्रियों, सेनापतियोंसेनापति पुत्रों आदि में से किसी एक ने भी - वैष्णव धर्म अंगीकार नहीं किया । पुरातन कालीन प्रगणित शिलालेखों में से जो शिलालेख विप्लवों, विषम परिस्थितियों और काल की थपेड़ों से बचे रह सके हैं, वे इस बात की आज भी साक्षी देते हैं ।
स्वयं होयसल नरेश विष्णुवर्द्धन से और उसके शासन काल से सम्बन्धित उपलब्ध अनेक शिलालेखों में विष्णुवर्द्धन के लिये "सम्यक्त्व चूडामणि" विशेषरण प्रयुक्त किया गया है ।' यहाँ यह बताने की आवश्यकता नहीं कि जिस मुमुक्षु भव्यात्मा ने जीव, अजीव आदि समस्त तत्त्वों को भली भांति समझ व हृदयंगम कर एक मात्र वीतराग जिनेन्द्र देव को ही अपने आराध्य देव, पंचमहाव्रतधारी सच्चे साधु को अपना गुरु और संसार के समस्त दुःखों का अन्त कर शाश्वत अनन्त अक्षय - अव्याबाघ शिव सुख प्रदान कराने में सक्षम भवाब्धि पोत तुल्य वीतराग सर्वज्ञ तीर्थंकर भगवान् द्वारा प्ररूपित धर्म को ही अपना धर्म मान लिया है, उसी सम्यग् दृष्टि भव्यात्मा के लिये "सम्यक्त्व चूडामरिण " विशेषरण का प्रयोग किया जाता है ।
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इसका एक सर्वाधिक पुष्ट प्रमारण शक सं. १०५६, ( ई० सन् ११३७ ) का एक शिलालेख है । बेलूर स्थित सोमनाथ मन्दिर की छत पर उटंकित इस कन्नड शिलालेख में उल्लेख है कि होय्सल नरेश विष्णुवर्द्धन के महा प्रचण्ड दण्डनायक, सर्वाधिकारी विष्णु दण्डाधिप पर नाम इम्मदि दण्डनायक बिट्टिय्यण्ण ने शक सं. १०५६ ( ई० सन् १९३७) में होय्सल राज्य की राजधानी बोर समुद्र में "विष्णु वर्द्धन जिनालय" नामक एक भव्य जिन मन्दिर का निर्माण करवाया । उस समय ( उक्त तिथि को ) इम्मडि दण्डनायक बिट्टिया ने प्राचार्य श्रीपाल fada को भगवान् की पूजा, ऋषियों को श्राहार दान मंन्दिर के प्रबन्ध एवं भविष्य में आवश्यकता पड़ने पर इस जिनालय के जीर्णोद्धार ( मरम्मत ) श्रादि के लिये मय्सेना के बीज बोल्ल गांव का दान स्वयं विष्णुवर्द्धन के हाथ से दिलवाया। इस शिलालेख में इम्मडि दण्डनायक बिट्टियण को विष्णुवर्द्धन की दक्षिण भुजा, परम विश्वास पात्र एवं प्रगाढ प्रीति पात्र बताने के साथ-साथ यह
१ जैन शिलालेख संग्रह, भाग १, लेख संख्या ४५, ५६, १३२, ४६३ एवं भाग २ लेख संख्या २६३, २६४
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