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५६ : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय प्रमाणाभाव में द्राविड़ों और यापनीयों के बीच किन बातों में समानता और किन बातों में अन्तर था इसको स्पष्ट कर पाना कठिन है। द्राविडसंघ की कृतियों के उपलब्ध होने पर उनका अध्ययन करके ही इस सम्बन्ध में कुछ लिखा जा सकता है। काष्ठासंघ और यापनीय संघ __ मूलसंघ और द्राविड़संघ की अपेक्षा काष्ठा संघ परवर्ती है । यापनीयों और द्रविड़ों के समान ही इस संघ को भी जैनाभास कहा गया है। इस संघ की उत्पत्ति जिनसेन के सतीर्थ और विनयसेन के शिष्य कुमारसेन के द्वारा वि० संवत् ७५३ अर्थात् सन् ६९६ ई० में हुई। आदरणीय प्रेमी जी ने इस उत्पत्ति संवत् को सन्दिग्ध माना है।' 'दर्शनसार' में इस संघ की निम्न मान्यताओं का उल्लेख हुआ है-स्त्रियों को पुनः दीक्षा, क्षुल्लकों की वीरचर्या, कर्कश केश ग्रहण और छठे अणव्रत की स्वीकृति ।
इसकी उत्पत्ति के सम्बन्ध में अलग-अलग मान्यताएँ हैं। पण्डित परमानन्द शास्त्री का कहना है कि इनका उत्पत्ति सम्वत् विक्रम सं० ७५३ के स्थान पर शक सम्वत् ७५३ होगा तभी विनयसेन के गुरु बन्धु जिनसेन के समय के साथ संगति बैठ सकती है काष्ठा संघ भी अचेलक परम्परा का एक दीर्घजीवी संघ है । इस संघ के चार गच्छ माने जाते हैं। माथुर गच्छ, बागड़ गच्छ, लाड़बागड़ गच्छ, और नन्दी बागड़ गच्छ । यद्यपि काष्ठ संघ से इन गच्छों का सम्बन्ध पर्याप्त परवर्ती ही है। प्रो० जोहरापुरकर लिखते हैं-"सम्भवतः १२वीं शती तक माथुर, बागड़ और लाड़बागड़ इन तीन संघों का काष्ठा संघ से कोई सम्बन्ध नहीं था ।" प्रो० जोहरापुरकर के अनुसार ऐसी स्थिति में यह मानना उचित
१. (अ) सत्तसएतेवण्णे विक्कमरायस्स मरणपत्तस्स ।
गंदियेडेवरगामेकट्टोसंघो मुणयन्वो ॥ दर्शन ३८ । (बी) देखें-जैन साहित्य और इतिहास-पृ० २७६-२७७ । २. इत्थीणं पुणदिक्खा खुल्लयलोयस्स वीरचरिअतं ।
कक्कसकेसग्गहणं, छटै च अण्णुव्वदं णाम । दर्शनसार ३५ ३. काष्ठा संघो भुवि ख्यातो जानन्ति नृसुरासुराः ।
तत्र गच्छाश्च चत्वारो राजन्ते विश्रुताः क्षितौ । श्रीनन्दितटसंज्ञश्च माथुरो बागड़ाभिधः। लाड़-बागड़ इत्येते विख्याताः क्षितिमण्डले ॥
-उद्धृत जैनसाहित्य और इतिहास १० २७७ ।
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