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________________ यापनीय संघ के गण और अन्वय : ४५ के अभाव में यह स्पष्ट कर पाना कठिन है। नोणमंगल की ताम्रपटिकाओं पर मूलसंधानुष्ठित मन्दिरों के उल्लेख से भी यह स्पष्ट नहीं होता कि मूलसंघ और निर्ग्रन्थ संघ एक ही थे या अलग-अलग। मेरी दृष्टि में सम्भवतः दोनों एक ही रहे होंगे । यदि अलग-अलग होते तो कहीं न कहीं इन दोनों का भी एक साथ उल्लेख अवश्य होता। ___ इस सम्बन्ध में मेरे विचार निम्न हैं जिस पर विद्वानों से चिन्तन करने की अपेक्षा है । यापनीयों के दक्षिण में प्रवेश के पूर्व भद्रबाहु के पहले या उनके साथ जो निर्ग्रन्थ श्रमणवर्ग दक्षिण चला गया था, वह अपने आप को 'निर्ग्रन्थ' ही कहता होगा; क्योंकि उस समय तक संघभेद या गणभेद नहीं हुआ था। सम्भवतः जब यापनीय उत्तरभारत से दक्षिणभारत की ओर गये तब वे अपने गण को मूलगण कहते रहे होंगे, क्योंकि यापनीयों (बोटिक) के विभाजन के समय उत्तर भारत में गण-भेद हो चुका था। अतः यापनीयों ने भी अपने साथ गण का प्रयोग अवश्य किया होगा। उनके जिन प्राचीन गणों के उल्लेख हैं उनमें पुन्नागवृक्षमूलगण, कनकोपलसम्भूतवृक्षमूलगण और श्रीमूलमूलगण ये तीन नाम मिलते हैं और इन तीनों के साथ मुलगण का प्रयोग है। अतः यह स्वाभाविक है कि जब उत्तर भारत को निग्रन्थ संघ सचेलता और अचेलता के प्रश्न पर दो भागों में विभक्त हो गया, तो उत्तर भारत की उस अचेल शाखा ने, जिसे श्वेताम्बरों ने बोटिक और दिगम्बरों ने यापनीय कहा है, अपने को तीर्थंकर महावीर के मूल आचार मार्ग का अनुसरण करने के कारण 'मूलगण' कहा होगा। जब यह मूलगण दक्षिण में प्रविष्ट हुआ होगा तो दक्षिण के निर्ग्रन्थ संघ ने इनकी सुविधावादी प्रवृत्तियों के कारण अथवा आपस में मिलते समय 'कि जवणिज्जं' (कि यापनीयं ?)-ऐसा पूछने पर या वन्दन करते समय 'जवणिज्जाये' शब्द का जोर से उच्चारण करने के कारण इन्हें 'यापनीय' (जावनीय) नाम दिया होगा । इन्हें बाहर से आया जानकर अपने संघ को मूलसंघ के नाम से अभिहित किया होगा। अतः सम्भावना यही है कि मूलगण और मूलसंघ अलग-अलग थे। 'मुलगण' यापनीय था और मूलसंघ निर्ग्रन्थ था। निर्ग्रन्थ संघ मूलसंघ से भिन्न नहीं था, यह उन अचेल श्रमणों का वर्ग था, जो भद्रबाहु के पूर्व या भद्रबाह के समय से दक्षिण भारत में विचरण कर रहे थे। अतः ई० सन् की पाँचवीं शती तक दक्षिण भारत में यापनीयों से भिन्न अचेल परम्परा के दो अन्य संघ भी थे एक निर्ग्रन्थ संघ (मूलसंघ) और दूसरा कूर्चक संघ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
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