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________________ ४४ : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय के लगभग का माना है । इस प्रकार ई. सन् की ५वों शताब्दी में दक्षिण भारत के उत्तरी भाग में हमें निम्न पांच जैन संघों के उल्लेख मिलते हैं (१) निर्ग्रन्थसंघ, (२) मूलसंघ, (३) कूर्चकसंघ, (४) यापनीयसंघ और (५) श्वेतपटमहाश्रमणसंघ । इनमें से प्रथम चार दिगम्बर (अचेलक) संघ हैं और अन्तिम श्वेताम्बर (सचेलक) संघ है। निर्ग्रन्थ संघ और मूलसंघ सर्वप्रथम हमें निर्ग्रन्थ संघ और मूलसंघ के सम्बन्ध में विचार करना है। दक्षिण में निर्ग्रन्थ संघ का उल्लेख हमें मात्र मृगेशवर्मा के दो अभिलेखों देवगिरि और हल्सी में मिलता है। देवगिरि अभिलेख में श्वेतपट महाश्रमण संघ और निर्ग्रन्थ महाश्रमण संघ का उल्लेख साथ-साथ हुआ है ये दोनों क्रमशः जैनों की श्वेताम्बर और दिगम्बर इन दो शाखाओं के परिचायक हैं । इस दान-पत्र से यह फलित होता है कि उस समय राजा दोनों सम्प्रदायों का समानरूप से सम्मान करते थे। साथ ही इन दोनों सम्प्रदायों में मान्यता या आचार भेद के होते हुए भी परस्पर सौहार्द और सह-अस्तित्व रहा होगा, अन्यथा एक हो गांव की आय को तीन भागों में विभाजित करके यह नहीं कहा जाता कि इसका एक भाग अहंद्देवता के लिए, एक भाग श्वेतपटमहाश्रमणसंघ के लिए और एक भाग निर्ग्रन्थ महाश्रमण संघ के लिए निश्चित किया गया। सम्भवतः उस समय तक श्वेताम्बर और दिगम्बरों के मन्दिर अलग-अलग नहीं होते थे। दोनों एक मन्दिर में उपासना कर लेते थे, प्रो० गलाबचन्द्र चौधरी ने भी इस तथ्य को स्वीकार किया है। साथ ही इससे यह भो फलित होता है कि श्वेतपट महाश्रमण संघ ईसा की ५वीं शताब्दी में दक्षिण-प्रदेश में उपस्थित था। श्वेताम्बर ग्रंथों में प्रतिष्ठानपुर (पैठण) में आयं कालक के समय से ही उनकी उपस्थिति के संकेत हैं। इस अभिलेख में उल्लिखित निर्ग्रन्थ महाश्रमण संघ से क्या तात्पर्य था, यह स्पष्ट नहीं होता। यद्यपि 'महा' 'विशेषण लगाने से लगता है कि अचेल वर्ग के सभी अवान्तर सम्प्रदायों के लिए यह एक सामान्य नाम होगा अर्थात् मूलसंघ, यापनीयसंघ और कुर्चकसंघ इन तीनों को निर्ग्रन्थ महाश्रमण संघ में समाहित किया गया होगा, किन्तु हल्सी के पूर्वोक्त अभिलेख में 'यापनीयनिर्ग्रन्थकूर्चकानां' ऐसा बहुवचनात्मक प्रयोग मिलता है, इससे यह सिद्ध होता है कि यापनीय, निम्रन्थ और कूर्चक ये तीन स्वतन्त्र सम्प्रदाय थे। किन्तु निर्ग्रन्थ संघ और मूलसंघ एक ही थे या अलग-अलग-प्रमाणों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
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