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४२ : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय
अभिलेखों में कहीं न कहीं यापनीय संघ का उल्लेख प्राप्त हो जाता है। किन्तु कुछ ऐसे भी गण हैं जिन्हें विद्वानों ने यापनीय-संघ से सम्बद्ध माना है, यद्यपि शिलालेखों में उनके साथ स्पष्ट रूप से यापनीय संघ का निर्देश नहीं है। प्रो० गुलाबचन्द्र चौधरी ने जैनशिलालेखसंग्रह-भाग ३ की भूमिका में बलहारीगण और उसके अड्डकलिगच्छ को भी यापनीय सम्प्रदाय से सम्बन्धित माना है। श्रीमती कुसुम पटोरिया ने भी प्रो० गुलाबचन्द्र चौधरी के आधार पर ही इस गण को यापनीय संघ के गणों की चर्चा के प्रसंग में उल्लिखित किया है। इस गण का प्राचीनतम अभिलेख लगभग ई० सन् ९४५ का है। इसमें सर्वलोकाश्रय जिनभवन के लिए बलहारीगण और अडकलिगच्छ को दान दिये जाने का उल्लेख है। इसमें आचार्यों की जो परम्परा दी गई है उसमें सकलचन्द, अप्यपोट्टि और अर्हन्नन्दी के उल्लेख हैं। इसी प्रकार बलगार गण का ई० सन् १०४८ का एक अन्य अभिलेख जो बेलगाँव से प्राप्त हआ है, उसमें मेघनन्दि भट्टारक के शिष्य अष्टोपवासो केशवनन्दी का उल्लेख है। प्रो० गुलाबचन्द्र चौधरी ने नन्द्यन्त नाम के कारण तथा उक्तगण के साथ किसी अन्य संघ का उल्लेख न होने से इसे यापनीय संघ का माना है। यह उल्लेखनीय है कि लगभग ११वीं शताब्दी से ही इस बलहार या बल-- कारगण का बलात्कारगण के रूप में मूलसंघ के साथ उल्लेख मिलने. लगता है।
यापनीय संघ के गणों के इतिहास-निर्धारण में हमारे सामने प्रमुख कठिनाई यह आती है कि जो गण या संघ प्रारम्भ में यापनीय संघ के साथ प्रतीत होते हैं वे आगे चलकर मूलसंघ या द्रविडसंघ के साथ उल्लिखित मिलते हैं। उदाहरण के रूप में नन्दीसंघ जिसका सर्वप्रथम उल्लेख यापनीय नन्दोसंघ इस रूप में हुआ है, आगे चलकर द्रविड़गण के साथ उल्लिखित मिलता है। १२वीं शताब्दी से तो इसका उल्लेख नन्दीगण. और नन्दीगच्छ के रूप में मूलसंघ के साथ भी हुआ है। इसी प्रकार बलगारगण, जो पहले स्वतन्त्र रूप से उल्लिखित है, आगे चलकर मूलसंघ
१. जैनशिलालेखसंग्रह, भाग ३ भूमिका पृ० ३० २. यापनीय और उनका साहित्य, पृ० ५१-५३ ३. जैनशिलालेखसंग्रह, भाग २, ले० क्र. १४४ ४. वही, भाग २, ले० क्र० १८१ ५. वही, भाग ३, भूमिका पृ० ३०
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