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________________ ४६८ : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय है, वहाँ यापनीय परम्परा ऐसे व्यक्तियों की गणना मुनि-वर्ग के अन्तर्गत ही करती है । अपराजित, आचारांग का एक सन्दर्भ देकर जो वर्तमान आचारांग में नहीं पाया जाता है कहते हैं कि ऐसे व्यक्ति नो-सर्वश्रमणागत हैं । तात्पर्य यह है कि सवस्त्र मुनि अंशतः श्रमण भाव को प्राप्त है। इस प्रकार यापनीय आपवादिक स्थितियों में परिस्थितिवश वस्त्र ग्रहण करने वाले श्रमणों को श्रमण ही मानते हैं, गृहस्थ नहीं। यद्यपि यापनीय और दिगम्बर दोनों ही अचेलकत्व के समर्थक हैं, फिर भी वस्त्र के सम्बन्ध में यापनीयों का दृष्टिकोण अपेक्षाकृत उदार एवं यथार्थवादी रहा है । आपवादिक स्थिति में वस्त्र ग्रहण, सचेल की मुक्ति की सम्भावना, सचेल स्त्री और पुरुष दोनों में श्रमणत्व या मुनित्व का सद्भावउन्हें अचेलता के प्रश्न पर दिगम्बर परम्परा से भिन्न करता है, जबकि आगमों में वस्त्र-पात्र के उल्लेख मात्र आपवादिक स्थिति के सूचक हैं और जिनकल्प का विच्छेद नहीं है यह बात उन्हें श्वेताम्बरों से अलग करती थी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
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