SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 482
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४६६ : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय परिहार संयमी एक वस्त्र ग्रहण करते थे । प्रस्तुत प्रसंग में यह भी कहा गया है कि जो जिनकल्प को धारण करने में असमर्थ हो वही पर्याय संयम को धारण करता है । इसका अर्थ यही है कि पर्याय संयमी एक वस्त्र रखता था । आश्चर्य यह है कि पं० कैलाशचन्द्रजी ने इस टीका का अनुवाद करते समय मूल के निम्न भाग का कोई अर्थ ही नहीं किया । 'एकोपधिकं अवसानं लिङ्ग परिहार संयतानाम्' यदि इसका अर्थ करते तो उन्हें एक उपधि की व्याख्या करनी पड़ती। पुनः उन्होंने संघाट 'दान ग्रहण का अर्थ भो मूल शब्दों को यथावत् रखकर सहायता देना या लेना कर दिया तथा उसमें भी भुजन शब्द का कोई अर्थ ही नहीं किया जबकि इसका स्पष्ट अर्थ है कि वे परिहार संयमी अनुकंपा करने वाले कल्पस्थित को भोजन और वस्त्र परस्पर देते भी हैं और लेते भी हैं । अगले चरण में और स्पष्ट करते हुए कहा है— वे आपस में एक ही स्थान पर रहते हैं, परस्पर एक दूसरे से वंदन, संलाप करते हैं और एक दूसरे की लाई भिक्षा को खाते भी हैं । परिहार संयमी को जिनकल्प में असमर्थं मानना उसके द्वारा एक उपधि का ग्रहण किया जाना और परस्पर एक दूसरे के वस्त्र, भोजनादि ग्रहण करना यह सब इस तथ्य का सूचक है कि वे अपवाद लिंग के धारक होते थे । इस समग्र चर्चा के आधार पर यापनीय संघ का वस्त्र सम्बन्धी दृष्टिकोण स्पष्ट हो जाता है । उनके इस दृष्टिकोण को संक्षेप में निम्न रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है १. श्वेताम्बर परम्परा, जो जिनकल्प के विच्छेद की घोषणा के द्वारा वस्त्र आदि के सम्बन्ध में महावीर की वैकल्पिक व्यवस्था को समाप्त करके सचेलकत्व को ही एक मात्र विकल्प बना रही थी, यह बात यापनीयों को मान्य नहीं थी । २. यानी यह मानते थे कि जिनकल्प का विच्छेद सुविधावादियों की अपनी कल्पना है । समर्थ साधक इन परिस्थितियों में या इस युग में भी रह सकता है । उनके अनुसार अचेलता ( नग्नता ) ही जिन का आदर्श मार्ग है, अतः मुनि को अचेल या नग्न ही रहना चाहिए । ३. यापनीय आपवादिक स्थितियों में ही मुनि के लिए वस्त्र को ग्राह्यता को स्वीकार करते थे उनकी दृष्टि में ये अपवादिक स्थितियाँ निम्न थीं Mang Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy