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जैनधर्म में अचेलकत्व और सचेलकत्व का प्रश्न : ४५५ गये) प्रतिष्ठा ( = नींव )-रहित = भिन्न-स्तूप, आश्रय-रहित धर्मविनय के प्रति ( थे)।' ___इस विवाद के प्रति श्रावकों की उदासीनता से यही फलित होता है विवाद का मुद्दा श्रावकों से सम्बन्धित नहीं है। इस घटना को चाहे बौद्धों ने अतिरंजित रूप में प्रस्तुत किया हो, किन्तु इस तथ्य को अस्वीकार भी नहीं किया जा सकता है। विवाद चाहे महावीर के निर्वाण के समय हुआ, या कुछ काल पश्चात् परन्तु-विवाद हुआ जरूर है । जैन संघ में आज भी महावीर के बाद संघ का आचार्य कौन हआ इसे लेकर मतभेद है । जहाँ श्वेताम्बर परम्परा महावीर के पश्चात् प्रथम आचार्य के रूप में सुधर्मा को स्वीकार करती है, वहाँ दिगम्बर परम्परा प्रथम आचार्य के रूप में गौतम को ही मान्य करती है । हो सकता है कि भिक्षु-विनय के प्रति गौतम को महावीर के अति निकट होने से थोड़े कठोर-दृष्टि कोण रखते हों और सुधर्मा का दृष्टिकोण अपेक्षाकृत उदार हो फिर भी इतना निश्चित है कि इस विवाद का मल कारण श्रमणाचार ही रहा होगा।
इस विवाद के सम्बन्ध में विद्वानों में दो प्रकार के मत हैं। मुनि कल्याणविजयजी आदि कुछ विद्वानों के अनुसार यह विवरण महावीर के जीवन-काल में ही उनके और गोशालक के बीच हुए उस विवाद का सूचक है, जिसके कारण महावीर के निर्वाण का प्रवाद भी प्रचलित हो गया था। भगवतीसूत्र में हमें इस विवाद का विस्तृत उल्लेख मिलता है। इसमें वस्त्रादि के सन्दर्भ में कोई चर्चा नहीं है। मात्र महावीर पर यह आरोप है कि वे पहले अकेले वन में निवास करते थे, अब संघ सहित नगर या गांव के उपान्त में निवास करते हैं और तीर्थंकर न होकर भी अपने को तीर्थंकर कहते हैं। किन्तु इस विवाद के प्रसंग में, जो सबसे महत्त्वपूर्ण बात है, वह यह कि पालित्रिपिटक में इसका सम्बन्ध धर्मविनय से जोड़ा गया है और ओदात्त अर्थात् श्वेत वस्त्र धारण करने वाले निम्रन्थ श्रावकों को इस विवाद से उदासीन बताया गया है।
१. देखें-दीघनिकाय, अनु० भिक्षु राहुल सांकृत्यायन एवं भिक्षु जगदीशकश्यप, __महाबोधि सभा, बनारस १९३६, पासादिकसुत्त, ३/६, पृ० २५२ २. भगवई, पन्नरसं सतं, १०१-१५२, संपा० मुनिनथमल, जैनविश्वभारती
लाडन, वि० सं० २१३१, पृ० ६७७ से ६९४ ३. देखें-दीघनिकाय-पासादिकसुत्तं, ३/६ पृ० २५२
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