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________________ ४५४ : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय भी ठीक नहीं होगा। फिर भी यदि इसमें चातुर्याम की अवधारणा के उल्लेख के आधार पर इसे पार्श्व की परम्परा से सम्बन्धित मानें तो भी इतना अवश्य है कि महावीर के संघ में पावपित्यों के प्रवेश के साथसाथ वस्त्र का प्रवेश हो गया था। चाहे निग्रन्थ परम्परा पार्श्व की रही हो या महावीर की यह निर्विवाद है कि निग्नन्थ संघ में प्राचीनकाल से ही वस्त्र के सम्बन्ध में वैकल्पिक व्यवस्था मान्य रही है, फिर चाहे वह अपवाद मार्ग के रूप में या स्थविरकल्प के रूप में ही क्यों न हो। पालित्रिपिटक में एक अन्य प्रसंग में महावीर के स्वर्गवास के पश्चात् निम्रन्थ संघ के पारस्परिक कलह और उनके दो भागों में विभाजित होने का उल्लेख मिलता है। उनके बीच हुए इस विवाद का क्या रूप था इसका उल्लेख दीघनिकाय एवं मज्झिमनिकाय में निम्न रूप में हुआ है एक समय भगवान शाक्य ( जनपद ) में, सामगाम में विहार करते थे। उस समय निगंठ नात-पुत्त ( = जैन तीर्थङ्कर महावीर ) अभी अभी पावा में मरे थे। उनके मरने पर निगंठ ( = जैन साधु ) लोग दो भाग हो, भंडन = कलह = विवाद करते, एक दूसरे को मुख रूपी शक्ति से छेदते विहर रहे थे-'तू इस धर्म-विनय (= धर्म ) को नहीं जानता, मैं इस धर्म-विनयको जानता हूँ। 'तू क्या इस धर्म-विनयको जानेगा, तू मिथ्यारूढ़ है, मैं सत्यारूढ़ हूँ' । 'मेरा ( कथन अर्थ- ) सहित है, तेरा अ-सहित है' । 'तूने पूर्व बोलने ( की बात ) को पीछे बोला; पीछे बोलने ( की बात ) को पहले बोला' । 'तेरा ( वाद ) बिना-विचार का उलटा है' । 'तूने वाद रोपा, तू निग्रह-स्थान में आ गया' । 'जा वाद से छूटने के लिये फिरता फिर' । 'यदि समेट सकता है तो समेट' । नात. पुत्तीय निगंठों में मानों युद्ध (= वध ) ही हो रहा था। निगंठ के श्रावक (- शिष्य ), जो गृही श्वेत (ओदात्त) वस्त्रधारी, (थे ) वे भी नात-पुत्रीय निगंठों के प्रति (वैसे ही) उदासीन-विरक्त प्रतिवाण-रूप थे, जैसे कि ( नात-पुत्त के) दुर आख्यात ( = ठीक से न कहे गये) दुष्प्रवेदित (- ठीक से न बतलाये गये ), अनैर्याणिक ( = पार न लगाने वाले), अन्-उपशम-संवर्तनिक (= न-शांति-गामी), अ-सम्यक्-सम्बुद्ध-प्रवेदित ( - किसी असम्यक-सम्बुद्ध द्वारा न कहे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
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