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________________ ४५२ : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय अस्वीकार किया और अचेलकों ने सचेलक को मुनि मानने से इन्कार किया तो संघ भेद होना स्वाभाविक ही था । ऐतिहासिक सत्य तो यह है कि महावीर के निर्वाण के पश्चात् जो निर्ग्रन्थ मुनि दक्षिण- बिहार, उड़ीसा और आन्ध्र प्रदेश के रास्ते से तमिलनाडु और कर्नाटक में पहुँचे, वे वहाँ की जलवायुगत परिस्थितियों के कारण अपनी अचेलता को यथावत कायम रख सके, क्योंकि वहाँ सर्दी पड़ती ही नहीं है । यद्यपि उनमें भी क्षुल्लक और ऐलक दीक्षाएँ होतो रही होंगी, किन्तु अचेलक मुनि को सर्वोपरि मानने के कारण उनमें कोई विवाद नहीं हुआ । दक्षिण भारत में अचेल रहना सम्भव था, इसलिये वहाँ अचेलता के प्रति आदरभाव बना रहा, किन्तु लगभग पाँचवीं छठी शती के पश्चात् वहाँ भी हिन्दू मठाधीशों के प्रभाव से सवस्त्र भट्टारक परम्परा का क्रमिक विकास हुआ और धीरे-धीरे दसवीं - ग्यारहवीं शती से व्यवहार में अचेलता प्रायः समाप्त हो गयी । केवल अचेलता के प्रति सैद्धान्तिक आदर भाव बना रहा । आज वहाँ जो दिगम्बर हैं, वे इस कारण दिगम्बर नहीं हैं कि वे नग्न रहते हैं अपितु इस कारण हैं कि अचेलता / दिगम्बरत्व के प्रति उनमें आदर भाव है । महावीर का जो निर्ग्रन्थ संघ बिहार से पश्चिमोत्तर भारत की ओर आगे बढ़ा उसमें जलवायु तथा मुनियों की बढ़ती संख्या के कारण वस्त्रपात्र का विकास हुआ। प्रथम शक, हूण आदि विदेशी संस्कृति के प्रभाव से तथा दूसरे जलवायु के कारण से उत्तर-पश्चिम भारत में नग्नता को हेय दृष्टि से देखा जाने लगा, जबकि दक्षिण भारत में नग्नता के प्रति हेय भाव नहीं था । प्रारम्भ में उत्तर भारत का निर्ग्रन्थ संघ रहता तो अचेल ही था, किन्तु अपने पास एक वस्त्र रखता था जिसका उपयोग नगरादि में प्रवेश करते समय लोक-लज्जा के निवारण के लिए और शीत ऋतु में सर्दी सहन न होने की स्थिति में ओढ़ने के लिए किया जाता था । मथुरा से अनेक ऐसे अचेल जैन मुनियों की प्रतिमाएँ प्राप्त हुई हैं जिनके हाथ में यह वस्त्र (कम्बल) इस प्रकार प्रदर्शित है कि उनकी नग्नता छिप जाती है । उत्तर भारत में निर्ग्रन्थों, मुनियों की इसी स्थिति को ही ध्यान में रखकर सम्भवतः पालित्रिपिटक में निर्ग्रन्थों को एक शाक कहा गया है। हमें प्राचीन अर्थात् ईसा की पहली दूसरी शती के जो भी साहित्यिक और पुरातात्त्विक प्रमाण मिलते हैं उनसे यही सिद्ध होता है कि उत्तर भारत के निर्ग्रन्थ संघ में शीत और लोक-लज्जा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
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