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________________ जैनधर्म में अचेलकत्व और सचेलकत्व का प्रश्न : ४५१ स्थाओं और जीवित परम्पराओं के सन्दर्भ में ईमानदारी से विचार करने पर नगण्य ही रह जाता है। हमारा दुर्भाग्य यह है कि हम अपने मताग्रहों में न तो आगमिक व्यवस्थाओं को देखने का प्रयत्न करते हैं और न उन कारणों का विचार करते हैं, जिनसे किसी आचार-व्यवस्था में परिवर्तन होता है । दुर्भाग्य है कि जहाँ श्वेताम्बर परम्परा ने जिनकल्प के विच्छेद के नाम पर उस अचेलता का अपलाप किया, जो उसके पूर्वज आचार्यों के द्वारा लगभग ईसा की दूसरी शती तक आचरित रही और जिसके सन्दर्भ उनके आगमों में आज भी हैं। वहीं दूसरी ओर दिगम्बर परम्परा में सचेल मुनि हो नहीं होता है, यह कहकर न केवल महावीर की मूलभूत अनेकान्तिक दृष्टि का उल्लंघन किया, अपितु अपने ही आगमों और प्रचलित व्यवस्थाओं को नकार दिया। हम पूछते हैं कि क्या ऐलक और क्षुल्लक गृहस्थ हैं ? और यदि ऐसा माना जाय तो इनके मूल अर्थ का ही अपलाप होगा। यदि हम निष्पक्ष दृष्टि से देखें तो निर्ग्रन्थ संघ में प्राचीनकाल से ही क्षुल्लकों (युवा-मुनि ) और स्थविरों ( वृद्ध-मुनियों ) के लिए वस्त्र ग्रहण की परम्परा मान्य रही है। क्षुल्लक लोक-लज्जा के लिए और स्थविर (वृद्ध ) दैहिक आवश्यकता के लिए वस्त्र ग्रहण करता है । क्षुल्लक, मुनि नहीं है यह उद्घोष केवल एकांतता का सूचक है। क्षुल्लक शब्द अपने आप में इस बात का सूचक है कि वह प्रारम्भिक स्तर का मुनि है, गृहस्थ नहीं, क्योंकि "क्षुल्लक" का अर्थ छोटा होता है। वह छोटा मुनि ही हो सकता है, गृहस्थ नहीं। प्राचीन आगमों में वस्त्रधारी युवा मुनि के लिए ही क्षुल्लक शब्द का प्रयोग हुआ है। आचारांग तथा अन्य पुरातात्त्विक साक्ष्यों से यह स्पष्ट हो जाता है कि निग्रन्थ संघ में या तो महावीर के जीवनकाल में या निर्वाण के कुछ ही समय पश्चात् सचेलअचेल मुनियों की एक मिली-जुली व्यवस्था हो गई थी। यह भी सम्भव है कि ऐसी दोहरी व्यवस्था मान्य करने पर परस्पर आलोचना के स्वर भी मुखरित हुए होंगे । यही कारण है कि आचारांग में स्पष्ट रूप से यह निर्देश दिया गया कि अचेल मुनि, एकशाटक, सान्तरोत्तर अथवा तोन वस्त्रधारी मुनि परस्पर एक-दूसरे की निन्दा न करें। ज्ञातव्य है कि संघ भेद का कारण यह मिली-जुली व्यवस्था नहीं थी, अपितु इसमें अपनीअपनी श्रेष्ठता का मिथ्या अहंकार ही आगे चलकर संघ भेद का कारण बना है। जब सचेलकों ने अचेलकों की साधना सम्बन्धी विशिष्टता को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
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