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जैनधर्म में अचेलकत्व और सचेलकत्व का प्रश्न : ४४९
उनमें भी वस्त्र ग्रहण की अनुमति मात्र लोक-लज्जा के निवारण और शीत -निवारण के लिए ही है । आचारांग में चार प्रकार के मुनियों के उल्लेख हैं - १. अचेल २. एक वस्त्रधारी ३. दो वस्त्रधारी और ४. तीन वस्त्रधारी ।
१. इनमें अचेल तो सर्वथा नग्न रहते थे । ये जिनकल्पो कहलाते थे ।
२. एक वस्त्रधारी भी दो प्रकार के होते थे
(अ) कुछ एक वस्त्रधारी रहते तो अचेल ही थे, किन्तु अपने पास एक ऊनी वस्त्र रखते थे, जिसका उपयोग नगरादि में प्रवेश के समय लोक-लज्जा के निवारण के लिए और सर्दियों की रात्रियों में शीतनिवारण के लिए करते थे । ये स्थविरकल्पी कहलाते थे ।
(ब) कुछ एक वस्त्रधारी मात्र अधोवस्त्र धारण करते थे, जैसे वर्तमान में दिगम्बर परम्परा के ऐलक धारण करते हैं । ऐलक एक चेलक (वस्त्रधारी ) का ही अपभ्रंश रूप है। इसे आगम में एकशाटक कहा गया है ।
३. दो वस्त्रधारी, जिन्हें सान्तरोत्तर भी कहा गया है, एक अधोवस्त्र व एक उत्तरीय रखते थे जैसे वर्तमान में क्षुल्लक रखते हैं । अधोवस्त्र लोक-लज्जा हेतु और उत्तरीय शीत-निवारण हेतु । ये क्षुल्लक कहलाते थे ।
४. तीन वस्त्रधारी अधोवस्त्र और उत्तरीय के साथ-साथ शीतनिवारणार्थं एक ऊनी कम्बल भी रखते होंगे । यह व्यवस्था आज के श्वेताम्बर मूर्तिपूजक साधुओं में है।
आचारांग स्पष्ट रूप से यह उल्लेख करता है कि वस्त्रधारी मुनि वस्त्र के जीर्ण होने पर एवं ग्रीष्मकाल के आगमन पर जीर्ण वस्त्रों का त्याग करते हुए अचेलता की दिशा में आगे बढ़े । तीन वस्त्रधारी क्रमशः अपने परिग्रह को कम करते हुए सान्तरोत्तर अथवा एकशाटक अथवा अचेल हो जाये । हम देखते हैं कि आचारांग में वर्णित वस्त्र सम्बन्धी यह व्यवस्था अचेलता का अति आग्रह रखने वाली दिगम्बर परम्परा में मुनि, ऐलक और क्षुल्लक के रूप में आज भी प्रचलित है । उसका क्षुल्लक आचारांग का सान्तरोत्तर है और ऐलक एकशाटक तथा मुनि अचेल है ।
श्वेताम्बर परम्परा में परवर्तीकाल में भी जो वस्त्र पात्र का विकास हुआ और वस्त्र ग्रहण को अपरिहार्य माना गया उसके पीछे मूल में परिग्रह या संचय वृत्ति न होकर देशकालगत परिस्थितियाँ, संघीय जीवन की
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