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४४८ : जैनधर्म का यापनीम सम्प्रदाय
संघ में सचेल-अचेल दोनों प्रकार की एक मिली-जुली व्यवस्था स्वीकार कर ली गयी थी और पार्श्व की परम्परा में प्रचलित सचेलता को भो मान्यता प्रदान कर दी गयी ।
निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि महावीर के निर्ग्रन्थ संघ में प्रारम्भ में तो मुनि की अचेलता पर हो बल दिया गया था, किन्तु कालान्तर में लोक-लज्जा और शीत- परीषह से बचने के लिए आपवादिक रूप में वस्त्र ग्रहण को मान्यता प्रदान कर दी गयी ।
श्वेताम्बर मान्य आगमों और दिगम्बरों द्वारा मान्य यापनीय ग्रन्थों आपवादिकस्थितियों का भी उल्लेख है, जिनमें मुनि वस्त्र ग्रहण
कर सकता था ।
श्वेताम्बर परम्परा द्वारा मान्य स्थानांगसूत्र ( ३।३।३४७ ) में वस्त्र ग्रहण के निम्न तीन कारणों का उल्लेख उपलब्ध होता है
१. लज्जा के निवारण के लिए ( लिंगोत्थान होने पर लज्जित न होना पड़े इस हेतु ) ।
२. जुगुप्सा ( घृणा ) के निवारण के लिए (लिंग या अण्डकोष विद्रूप होने पर लोग घृणा न करें इस हेतु ) ।
३. परीषह ( शीत- परीषह ) के निवारण के लिए । स्थानांगसूत्र में वर्णित उपर्युक्त तीन कारणों में प्रथम दो का समावेश लोक-लज्जा में हो जाता है, क्योंकि जुगुप्सा का निवारण भी एक प्रकार से लोक-लज्जा का निवारण ही है । दोनों में अन्तर यह है कि लज्जा का भाव स्वतः में निहित होता है और घृणा दूसरों के द्वारा की जाती है, किन्तु दोनों का उद्देश्य लोकापवाद से बचना है ।
इसी प्रकार दिगम्बर परम्परा में मान्य, किन्तु मूलतः यापनीय ग्रन्थ भगवती आराधना (७६) की टीका में निम्न तीन आपवादिक स्थितियों में वस्त्र ग्रहण की स्वीकृति प्रदान की गयी है
१. जिसका लिंग ( पुरुष चिह्न) एवं अण्डकोश विद्रूप हो, २. जो महान सम्पत्तिशाली अथवा लज्जालु है, ३. जिसके स्वजन मिथ्या दृष्टि हैं ।
यहां यह ज्ञातव्य है कि प्रारम्भ में निर्ग्रन्थसंघ मुनि के लिए वस्त्र ग्रहण एक आपवादिक व्यवस्था ही थी । उत्सर्ग या श्रेष्ठमार्ग तो अचेलता को ही माना गया था । श्वेताम्बर परम्परा द्वारा मान्य आचारांग, स्थानांग और उत्तराध्ययन में न केवल मुनि की अचेलता के प्रतिपादक सन्दर्भ उपलब्ध होते हैं अपितु अचेलता की प्रशंसा भी उपलब्ध होती है ।
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