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________________ ४४६ : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय समाप्त (छेद ) कर नवीन दीक्षा ( उपस्थापन ) देना । आज भी श्वेताम्बर परम्परा में छेदोपस्थापना के समय ही महावतारोपण कराया जाता है और तभी दीक्षित व्यक्ति की संघ में क्रम-स्थिति अर्थात् ज्येष्ठताकनिष्ठता निर्धारित होती है और उसे संघ का सदस्य माना जाता है । सामायिक चारित्र ग्रहण करने वाला मुनि संघ में रहते हुए भी उसका सदस्य नहीं माना जाता है । इस चर्चा से यह फलित होता है कि निग्रन्थ मुनि संघ में सचेल ( क्षुल्लक ) और अचेल ( मुनि ) ऐसे दो प्रकार के वर्गों का निर्धारण महावीर ने या तो अपने जीवन-काल में ही कर दिया होगा या उनके परिनिर्वाण के कुछ पश्चात् कर दिया गया होगा। आज भो दिगम्बर परम्परा में क्षल्लक (दो वस्त्रधारी), ऐलक (एक वस्त्रधारी) और मनि ( अचेल) एसी व्यवस्था है। अतः प्राचीनकाल में भी ऐसी व्यवस्था रही होगी, इससे इन्कार नहीं किया जा सकता है । ज्ञातव्य है कि इन सभी सन्दर्भो में वस्त्र-ग्रहण का कारण लोक-लज्जा या लोकापवाद और शारीरिक स्थिति ही था। ३. महावीर के निग्रन्थ संघ में वस्त्र के प्रवेश का तीसरा कारण सम्पूर्ण उत्तर भारत के हिमालय के तराई क्षेत्र तथा राजस्थान में शीत का तो प्रकोप था। महावीर के निग्रन्थ संघ में स्थित वे मुनि जो या तो वृद्धावस्था में ही दोक्षित हो रहे थे या वृद्धावस्था की ओर अग्रसर हो रहे थे, उनका शरीर इस भयंकर शीत प्रकोप का सामना करने में कठिनाई का अनुभव कर रहा था। ऐसे सभी मुनियों के द्वारा यह भी संभव नहीं था कि वे संथाराग्रहण कर उन शीतलहरों का सामना करत हुए अपने प्राणोत्सर्ग कर दें। ऐसे मुनियों के लिए अपवाद मार्ग के रूप में शीत-निवारण के लिए ऊनी वस्त्र रखने की अनुमति दी गई। ये मुनि रहते तो अचेल ही थे, किन्तु रात्रि में शीत-निवारणार्थ उस ऊनी-वस्त्र (कम्बल ) का उपयोग कर लेते थे। यह व्यवस्था वृद्ध मुनियों के लिए थी और इसलिए इसे 'स्थविरकल्प' का नाम दिया गया। मथुरा से प्राप्त ईस्वी सन् प्रथम-द्वितीय शती को जिन प्रतिमाओं की पाद-पीठ पर या फलकों पर जो मनि प्रतिमाएँ अंकित हैं, वे नग्न होकर भी कम्बल और मुखवस्त्रिका लिए हुए हैं। मेरी दृष्टि में यह व्यवस्था भी आपवादिक ही थी। __हम देखते हैं कि महावीर का जो मुनि-संघ दक्षिण भारत या दक्षिण मध्य भारत में रहा उसमें अचेलता सुरक्षित रह सकी, किन्तु जो मुनिसंघ उत्तर एवं पश्चिमोत्तर भारत में रहा उसमें शीत-प्रकोप की तीव्रता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
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