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________________ जैनधर्म में अचेलकत्व और सचेलकत्व का प्रश्न : ४४५ के लिए और अपवादमार्ग में मुनियों के लिए उसे संयमोपकरण मान लिया गया । २. पुनः जब महावीर के संघ में युवा दीक्षित होने लगे होंगे तो उन्हें भी महावीर को सवस्त्र रहने की अनुमति देनी पड़ी होगी, क्योंकि उनके जीवन में लिंगोत्थान और वीर्यपात की घटनाएँ सम्भव थीं । लिंगोत्थान और वीर्यपात ऐसी सामान्य मनोदैहिक घटनाएँ हैं जिनसे युवा मुनि का पूर्णतः बच पाना असम्भव है । मनोदैहिक दृष्टि से युवावस्था में चाहे कामवासना पर नियन्त्रण रखा जा सकता हो किन्तु लिंग स्थान और वीर्यपात का पूर्णं निर्मूलन सम्भव नहीं होता है । निर्ग्रन्थ संघ में युवा मुनियों में ये घटनाएँ घटित होती थीं, ऐसे आगमिक उल्लेख हैं। यदि ये घटनाएँ अरण्य में घटित हों, तो उतनी चिन्तनीय नहीं थीं किन्तु भिक्षा, प्रवचन आदि के समय स्त्रियों की उपस्थिति में इन घटनाओं का घटित होना न केवल उस मुनि की चारित्रिक प्रतिष्ठा के लिए घातक था, बल्कि सम्पूर्ण निर्ग्रन्थ मुनि संघ की प्रतिष्ठा पर एक प्रश्न चिन्ह खड़ा करता था । अतः यह आवश्यक समझा गया कि जब तक वासना पूर्णतः मर न जाय, तब तक ऐसे युवा मुनि के लिए नग्न रहने या जिनकल्प धारण करने की अनुमति न दी जाय । श्वेताम्बर मान्य आगमिक व्याख्याओं में तो यह स्पष्ट निर्देश है कि ३० वर्ष की वय के पूर्व जिनकल्प धारण नहीं किया जा सकता है । सत्य तो यह है कि निर्ग्रन्थ संघ में सचेल और अचेल ऐसे दो वर्ग स्थापित हो जाने पर यह व्यवस्था दी गई कि युवा मुनियों को छेदोपस्थापनीय चारित्र न दिया जाकर मात्र सामायिक चारित्र दिया जाय, क्योंकि जब तक व्यक्ति सम्पूर्ण परिग्रह त्याग करके अचेल नहीं हो जाता, तब तक उसे छेदोपस्थापनीय चारित्र नहीं दिया जा सकता है । ज्ञातव्य है कि महावीर ने ही सर्वप्रथम सामायिक चारित्र एवं छेदोपस्थापनीय चारित्र ( महाव्रतारोपण ) ऐसे दो प्रकार के चारित्रों की व्यवस्था की, जो आज भी श्वेताम्बर परम्परा में छोटी -दीक्षा और बड़ी - दीक्षा के नाम से प्रचलित है । युवा मुनियों के लिए क्षुल्लक शब्द का प्रयोग किया गया और उसके आचार-व्यवहार के हेतु कुछ विशिष्ट नियम बनाये गये, जो आज भी उत्तराध्ययन और दशवेकालिक के क्षुल्लकाध्ययनों में उपस्थित है। महावीर ने छेदोपस्थापनीय चारित्र की व्यवस्था उन प्रौढ़ मुनियों के लिए को, जो अपनी वासनाओं पर पूर्ण नियन्त्रण प्राप्त कर चुके थे और अचेल रहने में समर्थ थे । छेदोपस्थापना शब्द का तात्पर्य भी यही है कि पूर्व दीक्षा पर्याय को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
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