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योपनीय संघ की विशिष्ट मान्यताएँ : ४२५ एकादश परीषह कहे गये हैं, वे सत्ता की अपेक्षा से हैं, अनुभूति/अभिव्यक्ति की अपेक्षा से नहीं। क्योंकि घाती कर्मों के सहकार के बिना उनमें अभिव्यक्ति (वेदना) सामर्थ्य नहीं है । पुनः जिस प्रकार केवली में लेश्या का अभाव होने पर भी लेश्या का उपचार किया जाता है, उसी प्रकार परीषह का भी उपचार किया जाता है । मोह रूप हेतु का अभाव होने से केवली में क्षुधादि की अनुभूति (अभिव्यक्ति) मानना उचित नहीं है, अन्यथा फिर अयोगी केवली में भी उनकी अनुभूति माननी होगी, क्योंकि उस दशा में भी वेदनीय कर्म का सद्भाव तो रहता ही है । पुनः मोह का क्षय होने पर आहार की अभिलाषा ( इच्छा ) सम्भव नहीं है । साथ ही अनन्तशक्ति सम्पन्न होने पर निराहार दशा में अशक्तता मानना भी उचित नहीं है। सत्य तो यह है कि आत्म स्वरूप में उपयोग होने से केवली में भोजन की आकांक्षा तथा तद्रूप प्रवृत्ति नहीं हो सकती है। इस प्रकार सभी दिगम्बर आचार्यों ने केवली में क्षुधा-वेदनीय और उसके निवारणार्थ कवलाहार का निषेध किया था। (६) यापनीयों का उत्तरपक्ष :
दिगम्बर परम्परा के तत्त्वार्थ के टीकाकारों एवं जयधवलाकार के तर्कों का प्रत्युत्तर देने के लिये यापनीय आचार्य शाकटायन ने केवली भुक्ति प्रकरण नामक ३७ श्लोकों का एक लघुग्रंथ निर्मित किया है, जिसमें उन्होंने मुख्यतः जयधवलाकार एवं तत्त्वार्थसूत्र के दिगम्बर टीकाकारों के तर्कों को ही अपनी समालोचना का आधार बनाया है। उसका सार निम्न है
(१) भोजन ग्रहण करने के निमित्त कारण रूप आहारादि षट्पर्याप्तियाँ, वेदनीय कर्म, तेजस शरीर और दीर्घ आयुष्यकर्म का पूर्व में जो उदय या, वह कैवल्यदशा में भी रहता है। अतः केवली में क्षधावेदनीय का उदय और कवलाहार मानने में कोई बाधा नहीं है।
(२) पुनः केवली में आयुष्यादिकर्म नष्ट नहीं हुए हैं, अतः उन्हें जीवन जीना ही पड़ता है और जीवन जीने के लिये भोजन आवश्यक
क्षुदादिवेदनोद्भूतौ नार्हतोऽनंतशर्मता । निराहारस्य चाशक्तौ स्थातु नानंतशक्तिता ॥९॥ नित्योपयुक्तबोधस्य न च संज्ञास्ति भोजने। पाने चेति क्षुदादीनां नाभिव्यक्तिजिनाधिपे ॥१०॥
-तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक ९.११
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