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________________ ४२४ : जैनधर्ग का यापनीय सम्प्रदाय बात को दोहराया है। वे कहते हैं कि मंत्र और औषधि के बल से जिस विष द्रव्य की मारण शक्ति समाप्त हो गई उसे उपचार से ही विष कहा जाता है। उसी प्रकार जिन में ज्ञानादि अनन्त चतुष्टय की उपस्थिति, अन्तराय कर्म का अभाव तथा निरन्तर शुभ पुद्गलों के आगमन होने से वस्तुतः तो क्षुधादि का अभाव ही होता है, तथापि ध्यान के समान ही उपचार से उनमें उनका सद्भाव कहा जाता है । अथवा फिर यहाँ 'नायं' अर्थात् ऐसा नहीं है-इस वाक्य शेष की कल्पना करना चाहिये । अकलंक के पश्चात् विद्यानन्दी ने भी तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक में इन्हीं आधारों पर अपने तर्कों को विकसित किया है। वे लिखते हैं केवली में जो १, एकादश जिने तत्र केचित् संतीति व्याचक्षते, परे तु न संतीति । तदुभयव्याख्यानाविरोधमुपदर्शयन्नाह; एकादश जिने संति शक्तितस्ते परीषहाः । व्यक्तितो नेति सामर्थ्यान्याख्यानद्वयमिष्यते ॥ १॥ वेदनीयोदयभावात् क्षुदादिप्रसंग इति चेन्न, घातिकर्मोदयसहायाभावात् तत्सामर्थ्य विरहात् । तद्भावोपचाराध्द्यानकल्पनवच्छक्तित एव केवलिन्येकादशपरीषहाः संति न पुनर्व्यक्तितः, केवलाद्वेदनीयान्द्यक्तक्षुदाद्यसंभवादित्युपचारतस्ते तत्र परिज्ञातव्याः । कुतस्ते तत्रोपचर्यते इत्याह लेश्यैकदेशयोगस्य सद्भावादुपचर्यते । यथा लेश्या जिने तद्वद्वेदनीयस्य तत्त्वतः ।। २ ॥ घातिहत्युपचर्यते सत्तामात्रात् परीषहाः ।। छद्मस्थवीतरागस्य यथेति परिनिश्चितं ॥ ३ ॥ न क्षुदादेरभिव्यक्तिस्तत्र तद्धेतुभावतः । योगशन्ये जिने यद्वदन्यथातिप्रसंगतः ॥ ४ ॥ नैकं हेतुः क्षुदादीनां व्यक्तौ चेदं प्रतीयते । तस्य मोहोदयान्द्यक्तेरसद्वेद्योदयेपि च ॥ ५ ॥ क्षामोदरत्वसंपत्तौ मोहापाये न सेक्ष्यते । सत्याहाराभिलाषेपि नासद्वेद्योदयादृते ॥ ६ ॥ न भोजनोपयोगस्यासत्त्वेनाप्यनुदीरणा । असातावेदनीयस्य न चाहारेक्षणाद्विना ।। ७॥ क्षुदित्यशेषसामग्रीजन्याभिव्यज्यते कथं । तवैकल्ये सयोगस्य पिपासादेरयोगतः ॥ ८॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
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