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- ४१४ : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय
'विपक्ष में कुछ लिखा हो, ऐसा मुझे ज्ञात नहीं है । तस्वार्थश्लोकवार्तिक' में विद्यानन्द ने एकमात्र तर्क यह दिया है कि यदि सग्रन्थ अवस्था में मुक्ति होती हैं तो फिर परिग्रह त्याग की क्या आवश्यकता है ? जिस प्रकार यापनीय आचार्य 'शाकटायन' ने और श्वेताम्बर आचार्य हरिभद्र आदि ने स्त्री मुक्ति के समर्थन में विविध तर्क दिये उसी प्रकार के तर्क गृहस्थ या अन्य तैर्थिक की मुक्ति के सम्बन्ध में यापनीय एवं श्वेताम्बर आचार्यों ने नहीं दिये हैं । सम्भवतः इसका कारण यही रहा कि जब एक बार सचेल स्त्री की मुक्ति की सम्भावना स्वीकार की जाती है तो फिर गृहस्थ और अन्यतैर्थिक की मुक्ति की सम्भावना स्वीकार करने में कोई बाधा नहीं रहती, क्योंकि गृहस्थ और अन्यतैथिक की मुक्ति का प्रश्न सीधा स्त्री-मुक्ति की समस्या के साथ जुड़ा हुआ था । अतः उस पर स्वतन्त्र रूप से पक्ष व विपक्ष में अधिक चर्चा नहीं हुई है ।
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जहाँ तक यापनीय परम्परा का प्रश्न है वे स्त्री-मुक्ति के साथ-साथ गृहस्थ एवं अन्य तैर्थिक को मुक्ति स्वीकार करते थे । यापनोय ग्रन्थों से इस तथ्य की पुष्टि हो जाती है । आचार्य हरिषेण के 'बृहत्कथाकोश २ में स्पष्ट रूप से गृहस्थ मुक्ति का उल्लेख है । इसमें कहा गया है कि अणुव्रत, गुणव्रत, शिक्षाव्रत से अन्वित और मौनव्रत से समन्वित साधक सिद्धि को प्राप्त होता है । इसी प्रकार हरिवंशपुराण ( जिनसेन और हरिषेण ) में भी अन्य तैर्थिक की मुक्ति का उल्लेख किया गया है । उसमें बयालीसवें सर्ग में नारद को 'अन्त्यदेह' कहा गया है । पुनः उसके पैसठवें सर्ग में तो स्पष्ट रूप से यह कहा गया है कि - " नरश्रेष्ठ नारद ने प्रवर्जित होकर तपस्या के बल से भव- परम्परा का क्षय करके अक्षय मोक्ष को प्राप्त किया ।" इसके विपरीत दिगम्बर ग्रन्थों में नारद को नरकगामी
१. साक्षान्निर्ग्रन्थ लिगेन पारंपर्यात्ततोन्यतः । साक्षात्सग्रंथलिंगेन सिद्धी निर्ग्रथता - तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकम् १०/९, सम्पा० मनोहरलाल वृथा । २. अणुव्रतधरः कश्चित् गुणशिक्षाव्रतान्वितः । सिद्धिभक्तो व्रजेत् सिद्धि मौनव्रतसमन्वितः ॥ ३. अन्त्यदेहः प्रकृत्यैव निः कषायोऽप्यसौ क्षितौ
- बृहत्कथाकोश, ५७/५६७
- हरिवंशपुराण, ४२ / २२
४. नारदोऽपि नरश्रेष्ठः प्रव्रज्य तपसो बलात् । कृत्वा भवक्षयं मोक्षमक्षयं समुपेयिवान् ॥
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- हरिवंशपुराण, ६५ / २४
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