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________________ यापनीय संघ की विशिष्ट मान्यताएं : ४१३. क्षेत्र, काल, गति, लिंग, तोर्थ आदि को अपेक्षा से जो विचार किया गया है, वह उनकी मुक्ति प्राप्त करने के समय को स्थिति के सन्दर्भ में है। अतः भूतपूर्व नय का यहाँ कोई प्रयोजन हो नहीं है। क्योंकि यदि भूतपूर्व नय से कहना होता तो उसमें तो सभी लिंग, सभी गति, सभी क्षेत्र आदि से मुक्ति मानी जा सकती थो । सर्वार्थसिद्धि में भूतपूर्व नय का कथन मात्र आगम और अपनी परम्परा के मध्य संगति बिठाने हेतु किया गया है। इससे यह भी फलित होता है कि पूज्यपाद के समय में दिगम्बर परम्परा में अन्यतैर्थिक और गृहस्थमुक्ति के निषेध की अवधारणा स्पष्ट रूप से आ गयी थी। पूज्यपाद की सर्वार्थसिद्धि-टोका से पहले हमें श्वेताम्बर एवं दिगम्बर परम्परा के किसी भी ग्रन्थ में स्त्रो, अन्यतैर्थिक एवं गृहस्थ को मुक्ति के स्पष्ट निषेध सम्बन्धी कोई भी उल्लेख नहीं मिले हैं। श्वेताम्बर मान्य आगम सूत्रकृतांग और उत्तराध्ययन में तो स्पष्ट रूप से इन तोनों की मक्ति का उल्लेख हुआ है यह हम पूर्व में बता चुके हैं। कुन्दकुन्द और पूज्यपाद के समय से ही जैन विद्वानों में यह मतभेद हुआ है। हमारी दृष्टि में कुन्दकुन्द भी पूज्यपाद के समकालोन लगभग छटो शती के हो है। अतः पूज्यपाद के साथ-साथ उन्होंने भी सूत्रप्राभृत में 'वस्त्रधारी' की मक्ति का निषेध किया है। वे कहते हैं कि "यदि तीर्थंकर भी वस्त्रधारो हो तो वह भी मुक्त नहीं हो सकता।"' इस निषेध में स्त्री, अन्य-- तैथिक एवं गहस्थ तीनों की मुक्ति का हो निषेध हो जाता है क्योंकि ये तोनों ही वस्त्रधारी है। इस प्रकार दिगम्बर परम्परा में कुन्दकुन्द एवं पूज्यपाद के काल से स्त्री मक्ति के साथ-साथ अन्यतैर्थिक एवं गहस्थ की मुक्ति का भी निषेध कर दिया गया । वस्तुतः कोई भी धर्म परम्परा जब साम्प्रदायिक संकीर्णताओं में सिगटती जाती है, तो उसमें अन्य परम्पराओं प्रति उदारता समाप्त होती जाती है। अन्यतैथिकों एवं गहस्थों को मुक्ति का निषेध इसो का परिणाम था। परवर्ती श्वेताम्बर एवं दिगम्बर ग्रन्यों में इस सम्बन्ध में जो भी चर्चा हुई वह मुख्य रूप से स्त्री मुक्ति के प्रश्न को लेकर हो हुई । गृहस्थ एवं अन्यतेथिक को मुक्ति का प्रश्न वस्तुतः स्त्रीमुक्ति के प्रश्न से ही जड़ा हआ था। अतः परवर्ती साहित्य में इन दोनों के सम्बन्ध में पक्ष व १. गवि सिज्झइ वत्थधरो जिणसासणे जइवि होइ तित्थयरो। जग्गो विमोक्खमग्गो सेसा उम्मग्गया सव्वे ।। -सूत्रप्रागुत, २३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
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