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________________ ३९६ : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय हमें एक भी संकेत ऐसा नहीं मिलता है जिसमें श्वे. आचार्यों ने स्त्रीमुक्ति का ताकिक समर्थन किया हो, इससे ऐसा लगता है कि सातवीं शताब्दी तक उन्हें इस तथ्य की जानकारी भी नहीं थी कि स्त्रीमुक्ति के सन्दर्भ में कोई प्रतिपक्ष भी है। स्त्रो की प्रव्रज्या ( महाव्रतारोपण ) और स्त्रीमुक्ति का निषेध सर्वप्रथम आचार्य कुन्दकुन्द ने लगभग छठी शताब्दी में किया और उस सम्बन्ध में अपने कुछ तर्क भी दिये । उनके पूर्व पूज्यपाद ने स्त्रीमक्ति का निषेध तो किया था, फिर भी उन्होंने उस सन्दर्भ में कोई नर्क प्रस्तुत नहीं किये। आचार्य कुन्दकुन्द ने ही सर्वप्रथम सुत्तपाहुड में यह कहा है कि जिन-मार्ग में सर्वस्त्र को मुक्ति नहीं हो सकती चाहे वह तीर्थकर ही क्यों न हो ?' सवस्त्र को मुक्ति के निषेध में स्त्रीमुक्ति का निषेध गर्भित है, क्योंकि स्त्री निर्वस्त्र नहीं हो सकती है । स्त्री का महाव्रतारोपण अर्थात् प्रव्रज्या क्यों नहीं हो सकती इसके सन्दर्भ में उन्होंने यह कहा कि इसके कुक्षि (गर्भाशय ), नाभि और स्तन में सूक्ष्म जीव होते हैं। इसलिए उसको प्रवज्या कैसे हो सकती है ? ज्ञातव्य है यहाँ कुक्षी शब्द गर्भाशय के हेतु हो प्रयुक्त हुआ है। पुनः यह भी कहा गया है कि उसमें मन की पवित्रता नहीं होती वे अस्थिरमना होती हैं तथा उनमें रजस्राव होता रहता है, इसलिए उनका ध्यान चिन्ता रहित नहीं हो सकता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि सर्वप्रथम कुन्दकुन्द के सुत्तपाहुड में हो स्त्रीमुक्ति का तार्किक खण्डन उपलब्ध होता है। दूसरे शब्दों में दिगम्बर परम्परा में स्त्रीमुक्ति का तार्किक निषेध छठी शताब्दो से प्रारम्भ हुआ। इसके पूर्व इस परम्परा में इस सम्बन्ध में क्या मान्यता थो, यह जानने का हमारे पास कोई साधन नहीं है, क्योंकि इसके पूर्व का कोई दिगम्बर साहित्य हो उपलब्ध नहीं है। श्वेताम्बर परम्परा में सातवीं शताब्दी तक स्त्रोमुक्ति के तार्किक 'निषेध का कहीं कोई खण्डन किया गया हो, ऐसी सूचना भी उपलब्ध नहीं होती है। संभवतः सातवीं शताब्दी तक श्वेताम्बर आचार्य इस मत से कि कोई ऐसी परम्परा है, जो स्त्री मुक्ति का निषेध करती हैं, अवगत ही नहीं थे। स्त्री मुक्ति के निषेधक तर्कों का सर्वप्रथम उत्तर श्वेताम्बरों १. सुत्तपाहुड़, गाथा २३ । २. वही, गाथा २४ । ३. वही, गाथा २५-२६ । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
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