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यापनीय संघ की विशिष्ट मान्यताएँ : ३९५.. चर्चा करते हुए लिंगानुयोगद्वार की दृष्टि से भी विचार किया गया है। भाष्य की विशेषता यह है कि वह लिंग शब्द पर उसके दोनों अर्थों की दृष्टि से विचार करता है। अपने प्रथम अर्थ में लिंग का तात्पर्य है-पुरुष, स्त्री या नपुंसक रूप शारीरिक रचनाएँ। लिंग के इस प्रथम अर्थ की दष्टि से उसमें उत्तराध्ययन के समान ही स्त्री, पुरुष और नपुसक तोनों लिंगों से मुक्ति होने का उल्लेख है। साथ ही यह भी उल्लेख है कि प्रत्युत्पन्न भाव अर्थात् वर्तमान में काम वासना की उपस्थिति को दष्टि से तो 'अवेद' अर्थात् कामवासना से रहित व्यक्ति को हो मुक्ति होतो है, किन्तु पूर्व भाव को अपेक्षा से तो तीनों वेदों से सिद्धि होतो है। साथ हो उसमें लिंग का अर्थ वेश करते हुए कहा गया है प्रत्युत्पन्न भाव अर्थात् वर्तमान भाव की अपेक्षा में तो अलिंग अर्थात् लिंग के प्रति ममत्व से रहित आत्मा ही सिद्ध होती है। भावलिंग को अपेक्षा से स्वलिंग हो सिद्ध होते हैं, किन्तु द्रव्यलिंग अर्थात् बाह्य वेश को अपेक्षा से स्वलिंग, अन्यलिंग और गृहीलिंग तीनों ही विकल्प से सिद्ध होते हैं। __ तत्वार्थभाष्य के पश्चात् को तत्त्वार्थ को दिगम्बर परम्परा को टीकाओं में सर्वप्रथम सर्वार्थसिद्धि में कहा गया है कि वेद को दृष्टि से तोनों वेदों के अभाव में हो सिद्धि होती है। किन्तु द्रव्य-लिंग अर्थात् शारीरिक संरचना की दृष्टि से पूलिंग हो सिद्ध होते हैं। बाह्यवेश की अपेक्षा से निग्रन्थ लिंग हो सिद्ध हाते हैं किन्त भूतपूर्व नय को अपेक्षा से तो सग्रन्थ लिंग से भी सिद्धि होतो है । इस प्रकार हम देखते हैं कि सर्वप्रथम सर्वार्थसिद्धि में इस बात का प्रतिपादन किया गया है कि मुक्ति पुरुष लिंग से ही प्राप्त हो सकती है। इसके पश्चात् राजवातिककार अकलंक भी सर्वार्थसिद्धि के उल्लेख का हा समर्थन करके रह जाते हैं। उससे अधिक वे भी कुछ नहीं कहते हैं ।२ ___ श्वेताम्बर परम्परा में आवश्यकम ठभाष्य (५वों शतो) ओर विशेषावश्यकभाष्य (छटो शतो) और आवश्यकचणि (सातवों शतो ) में हमें अचेलकत्व और सचेलकत्व के प्रश्न को लेकर आर्यशिवभूति और आर्यन कृष्ण के मध्य हए विवाद के पक्ष और प्रतिपक्ष के विविध तर्कों का उल्लेख तो मिलता है किन्तु चूर्णि के काल तक अर्थात् सातवीं शताब्दी के अन्त तक
१. तत्त्वार्थभाष्य, १०७ । २. सर्वार्थसिद्धि , १०।९। ३. राजवार्तिक, १०१९ ।
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