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________________ यापनीय संघ की विशिष्ट मान्यताएँ : ३८७ कहा था । वस्तुतः वस्त्र पात्र आदि के प्रश्नों पर महावीर की श्रमणपरम्परा को यापनोयों को इस पूर्व परम्परा ने एक यथार्थ दिशा देने का प्रयत्न किया था, किन्तु आग्रही वृत्तियों ने उसकी बात अनसुनी कर दी और संघ विभक्त हो गया । दुर्भाग्य तो यह है कि महावीर की मूल विचारधारा और आचार परम्परा के निकट होते हुए भी यापनीयों को अपने-अपने अतिवादी आग्रहों के कारण श्वेताम्बरों ने मिथ्यादृष्टि, प्रभूततर विसंवादी और सर्वापलापो तक कहा और दिगम्बरों ने भ्रष्ट एवं जैनाभास बताया । आएँ - सर्वप्रथम तो श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्पराओं की दृष्टि में यापनीयों की क्या मान्यताएँ थीं, इसे देखें और फिर निष्पक्ष भाव से उनके ग्रन्थों के आधार पर उनकी मान्यताओं का प्रस्तुतीकरण एवं मूल्यांकन करें । श्वेताम्बर साहित्य में उल्लिखित यापनोय संघ की मान्यताएँ वह जैसा कि हम पूर्व में देख चुके हैं, श्वेताम्बर साहित्य में यापनीय परम्परा सम्बन्धी प्राचीन उल्लेख बोटिक के नाम से हुए हैं। आवश्यक मूलभाष्य ई० सन् लगभग पाँचवी शती में मात्र यह उल्लेख है कि वीर निर्वाण के ६०९ वर्ष पश्चात् रथवीरपुर नगर के दीपक उद्यान में आर्यकृष्ण और शिवभूति के बीच उपधि सम्बन्धी चर्चा के फलस्वरूप बोटिक दृष्टि और बोटिक लिङ्ग की उत्पत्ति हुई और उनके शिष्य कोडिण्ण और वीर से एक अलग परम्परा चली । किन्तु यहाँ यह स्पष्ट नहीं है कि बोटिक दृष्टि और बोटिक लिङ्ग क्या था ? मात्र इतना ही संकेत है कि विवाद का कारण उपधि अर्थात् परिग्रह ही था । उसके पश्चात् कालोन ग्रन्थ विशेषावश्यक भाष्य ( ई० सन् छठी शती उत्तरार्ध) में विवाद का विषय वस्त्र और पात्र बतलाये गये हैं । २ विशेषावश्यकभाष्य में जहाँ शिवभूति वस्त्रादि परिग्रह को कषाय का हेतु बताकर अचेलकत्व या जिनकल्प का समर्थन करते हैं, वहाँ आर्यकृष्ण जिनकल्प के विच्छेद का उद्घोष करते हैं । इससे फलित होता है कि यापनीय ( बोटिक ) अचेलता पर बल देते थे । अन्य साक्ष्यों से यह भी फलित होता है कि वे पाणीतल भोजो थे अर्थात् पात्र में भोजन ग्रहण नहीं करते थे । इस प्रकार विशेषा 1 १. आवश्यक मूलभाष्य, गाथा १४७ ( विशेषावश्यक भाष्य गाथा २५५२ के पूर्व ) - २. विशेषावश्यक भाष्य २५५२-२६०९ ( आगमोदय समिति बम्बई ) १९२७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
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