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अध्याय ४
यापनीय संघ की विशिष्ट मान्यताएँ
जहाँ तक नव या सप्त तत्त्व, षद्रव्य, पंचास्तिकाय, षट्जीवनिकाय, अष्टकर्म, त्रिरत्न, पंचमहावत, रात्रिभोजननिषेध, पंचसमिति, तोनगुप्ति श्रावक के द्वादशवत एवं ग्यारह प्रतिमाएँ आदि जैन धर्म के सामान्य सिद्धान्तों का प्रश्न है; यापनीय संघ को मान्यताओं तथा श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्पराओं की मान्यताओं में क्रम आदि को छोड़कर कोई मूलभूत अन्तर नहीं है । अतः यापनीय संघ की धार्मिक एवं दार्शनिक मान्यताओं के प्रसंग में उनको चर्चा करना मुझे आवश्यक प्रतीत नहीं होता है। यहाँ हम केवल उन्हीं विशिष्ट मान्यताओं की चर्चा करेंगे, जिनमें यापनीय संघ श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्पराओं से मतवैभिन्न्य रखता है।
हम पूर्व में ही यह सूचित कर चुके हैं कि यापनीय संघ श्वेताम्बरों एवं दिगम्बरों की अतिवादी धाराओं के बीच एक योजक कड़ी है। वह कुछ बातों में दिगम्बर परम्परा के और कुछ बातों में श्वेताम्बर परम्परा के निकट प्रतीत होता है। यदि हम निष्पक्ष रूप से विचार करें तो यापनीय संघ वह मध्यकेन्द्र प्रतीत होता है, जहाँ से वर्तमान श्वेताम्बर और दिगम्वर धाराएँ आचार के कुछ प्रश्नों को लेकर दो भिन्न दिशाओं में प्रस्थान करती हैं। महत्त्वपूर्ण यह है कि वस्त्र-पात्र आदि के विवादास्पद प्रश्नों पर, यापनीय सम्प्रदाय जो दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है-वह आज भी श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्पराओं के मध्य योजक कड़ी बन सकता है।
वस्तुतः जब उत्तर भारत में प्रवर्तित महावीर के श्रमणसंघ में वस्त्रपात्र रखने का आग्रह जोर पकड़ने लगा, भगवान् महावोर द्वारा उपदिष्ट एवं आचरित अचेलकत्व अर्थात् जिनकल्प का विच्छेद बता कर उसका उन्मूलन किया जाने लगा और वस्त्र-पात्र के आपवादिक मार्ग (स्थविरकल्प) को हो तत्कालीन परिस्थितियों में एकमात्र मार्ग माना जाने लगा, तो शिवभूति प्रभृति कुछ प्रबुद्ध मुनियों ने उसका विरोध किया। इस विरोध की फलश्रुति स्वरूप ही उस सम्प्रदाय का जन्म हुआ, जो यापनीयों की पूर्व अवस्था थो और जिसे श्वेताम्बरों ने बोटिक या बोडिय
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