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________________ तत्त्वार्थसूत्र और उसकी परम्परा : ३८१ में दिये जाना संभव है, जिससे एक ओर यापनीय परम्परा का और दूसरी ओर श्वेताम्बर परम्परा का विकास हुआ । वाचक विशेषण के प्रमाण तो नन्दिसूत्र स्थविराली में मिलते ही हैं। क्योंकि इस कालतक उत्तर भारत के मुनि ऊनी रजोहरण के स्थान पर पिच्छि ( प्रतिलेखन ) रखते थे, अतः गृध्रपिच्छ विशेषण से भी उन्हें उत्तर भारत की निर्ग्रन्थधारा का मानने से कोई बाधा नहीं आती है । ३. काल की दृष्टि से उमास्वति ईस्वी सन् की प्रथम शताब्दी के पश्चात् और चतुर्थ शताब्दी के पूर्व हुए हैं । प्रो० ढाकी के द्वारा उनका काल ईस्वी सन् ३७५-४०० माना गया है । उनके इस काल के आधार पर उन्हें न तो श्वेताम्बर, न दिगम्बर और न यापनीय ही कहा जा सकता है । वस्तुतः वे उस काल में हुए हैं जब उत्तर भारत के निर्ग्रन्थ संघ में आचार एवं विचार सम्बन्धी अनेक मतभेद अस्तित्व में आ गये थे, किन्तु उस युग तक साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण होकर श्वेताम्बर, दिगम्बर या यापनीय परम्पराओं का जन्म नहीं हुआ था । हमें पाँचवीं शताब्दी के पूर्व न तो अभिलेखों में और न साहित्यिक स्रोतों में ऐसे कोई संकेत मिलते हैं, जिसके आधार पर यह माना जा सके कि उस काल तक श्वेताम्बर ( श्वेतपट्ट ) दिगम्बर या यापनीय ऐसे नाम अस्तित्व में आ गये थे । यद्यपि वस्त्र पात्रादि को लेकर विवाद का प्रादुर्भाव हो चुका था, किन्तु संघ स्पष्ट रूप से खेमों में विभाजित होकर श्वेताम्बर, यापनीय और दिगम्बर ऐसे नामों से अभिहित नहीं हुआ था। उस काल तक मान्यता भेद और आचारभेद को लेकर विभिन्न गण, कुल और शाखाएँ तो अपना स्वतन्त्र अस्तित्त्व रखती थीं, किन्तु सम्प्रदाय नहीं बने थे । अतः काल की दृष्टि से उमास्वाति न तो श्वेताम्बर थे और न यापनीय ही थे, अपितु वे उस पूर्वज धारा के प्रतिनिधि हैं जिससे ये दोनों परम्पराएँ विकसित हुई है। हाँ इतना अवश्य है कि दक्षिण भारत की अचेल धारा जो आगे चलकर दिगम्बर नाम से जानी गई, उससे वे सीधे रूप में सम्बन्धित नहीं थे । ४. यह सत्य है कि तत्त्वार्थसूत्र की कुछ मान्यताएँ श्वेताम्बर आगमों के औरकुछ मान्यताएँ दिगम्बरमान्य आगमों के विरोध में जाती हैं । यह भी सत्य है कि उनकी कुछ मान्यताएँ यापनीय ग्रन्थों में यथावत् रूप में पायी जाती हैं, किन्तु इस सबसे हम इस निष्कर्ष पर नहीं पहुँच सकते कि वे श्वेताम्बर, दिगम्बर या यापनीय परम्परा के थे । जैसा कि हमने पूर्व में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
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