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________________ ३७८ : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय प्रकार वैशाली पाटलिपुत्र से पद्मावती (पँवाया ), गोपाद्रि ( ग्वालियर ) होते हुए मथुरा जाने वाले मार्ग पर भी इसकी अवस्थिति थी । उस समय पाटलीपुत्र से गंगा और यमुना के दक्षिण से होकर जाने वाला मार्ग ही अधिक प्रचलित था, क्योंकि इसमें बड़ी नदियाँ नहीं आती थीं, मार्ग पहाड़ी होने से कीचड़ आदि भी अधिक नहीं होता था । जैन साधु प्रायः यही मार्ग अपनाते थे 1 प्राचीन यात्रा मार्गों के अधार पर ऐसा प्रतीत होता है कि ऊँचा नगर की अवस्थिति एक प्रमुख केन्द्र के रूप में थी । यहाँ से कौशाम्बी, प्रयाग, वाराणसी आदि के मार्ग थे । पाटलिपुत्र को गंगा-यमुना आदि बड़ी नदियों को बिना पार किये जो प्राचीन स्थल मार्ग था, उसके केन्द्र-नगर के रूप में उच्चकल्प नगर (ऊच चानगर) की स्थिति सिद्ध होती है । यह एक ऐसा मार्ग था, जिसमें कहीं भी कोई बड़ी नदी नहीं आती थी । अतः सार्थ निरापद समझकर इसे ही अपनाते थे । प्राचीन काल से आज तक यह नगर धातुओं के मिश्रण के बर्तनों हेतु प्रसिद्ध रहा है। आज भी वहाँ कांसे के बर्तन सर्वाधिक मात्रा में बनते हैं । ॐचेहरा का उच्चैर् शब्द से जो ध्वनि-साम्य है वह भी हमें इसी निष्कर्ष के लिए बाध्य करता है कि उच्चैर्नागर शाखा की उत्पत्ति इसी क्षेत्र से हुई थी । उमास्वाति का जन्म स्थान नागोद ( म० प्र० ) उमास्वाति ने अपना जन्म स्थान न्यग्रोधिका बताया है । इस संबंध में भी विद्वानों ने अनेक प्रकार के अनुमान किये हैं । चूंकि उमास्वाति ने तत्त्वार्थभाष्य की रचना कुसुमपुर (पटना) में की थी । अतः अधिकांश लोगों ने उमास्वाति के जन्मस्थल को पहचान उसी क्षेत्र में करने का प्रयास किया है । न्यग्रोध को वट भो कहा जाता है । इस आधार पर पहाड़पुर के निकट बटगोहली, जहाँ से पंचस्तूपान्वय का एक ताम्र-लेख मिला है, से भी इसका समीकरण करने का प्रयास किया है । मेरी दृष्टिये धारणाएँ समुचित नहीं हैं । उच्चैर्नागर शाखा, ऊँचेहरा से सम्बन्धित थी, उसमें उमास्वाति के दोक्षित होने का अर्थ यही है कि वे उसकेउत्पत्ति स्थल के निकट ही कहीं जन्मे होंगे । उच्चैर्नागर या ॐ चेहरा से मथुरा जहाँ उच्चनागरी शाखा के अधिकतम उल्लेख प्राप्त हुए हैं तथा पटना जहाँ उन्होंने तत्त्वार्थभाष्य को रचना की, दोनों ही लगभग समान दूरी पर अवस्थित रहे हैं । वहाँ से दोनों लगभग ३५० कि० मी०. 1 १. तत्त्वार्थ सूत्र, भूमिका ( पं० सुखलालजी), पृ० ५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
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