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________________ ' ३६६ : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय विजयोदया टोका में अपराजित ने इन चारों प्रकृतियों को पुण्य रूप माना है।' भाष्य में इन चार प्रकृतियों को पुण्य रूप मानना वस्तुतः इस बात सचक है कि पूर्व में कोई एक परम्परा ऐसी थी, जो इन्हें पुण्यरूप मानती थी। इससे इतना ही सिद्ध होता है कि यापनीयों ने इस सन्दर्भ में भाष्य की परम्परा का अनुसरण किया है, किन्तु कर्म ग्रन्थों पर बल देने वाली श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्पराओं ने उन्हें स्वीकृति नहीं दी । यही हमें यह भी स्मरण रखना चाहिए कि ईस्वी सन् की प्रथम शताब्दी से तीसरी शताब्दी के बीच उत्तर भारत के जैनों में अनेक ऐसी धारणायें उपस्थित थी, जिनमें से कुछ यापनीय परम्परा में जीवित रही, कुछ श्वेताम्बरों में मान्य रही। वस्तुतः तत्त्वार्थ का काल जैन दर्शन के विकास का काल था। अन्य दृष्टि से उसे दर्शन व्यवस्था का काल भी कहा जाता है। उस काल में उपस्थित अनेक धारणाओं में से कुछ ऐसी भी हैं जो किसी के द्वारा स्वीकृत नहीं होने से विलुप्त हो गई, जैसे काल को स्वतन्त्र द्रव्य नहीं मानने वाली परम्परा अथवा षट्जीवनिकाय में तीन त्रस और तीन स्थावर मानने वाली परम्परा आदि । उस युग में इनके अस्तित्व के संकेत तो मिलते हैं, किन्तु आगे चलकर ये विलुप्त हो जाती हैं। आज न तो श्वेताम्बर में ऐसा कोई है जो काल को स्वतन्त्र द्रव्य नहीं मानता हो और न कोई ऐसा है जो तीन त्रस और तीन स्थावर को स्वीकार करता हो। यद्यपि श्वेताम्बर आगमों एवं तत्त्वार्थसूत्र में उनके अस्तित्व की सचना है। अतः इस समग्र चर्चा से हम इसी निर्णय पर पर पहुँचते है कि तत्त्वार्थसूत्र और उसके कर्ता उत्तर भारत को उस निर्ग्रन्य धारा में हए हैं, जिससे आगे चलकर श्वेताम्बर ( उत्तर भारत की सचेल धारा) और यापनीय (उत्तर भारत को अचेल धारा) परम्परायें विकसित हई हैं । वे श्वेताम्बर और यापनोय दोनों के पूर्वज हैं । हाँ इतना अवश्य है कि वे दक्षिण भारतीय अचेल-धारा से जिसे हम दिगम्बर कहते हैं, सीधे रूप से सम्बद्ध नहीं हैं। तत्त्वार्थसूत्र का काल इस प्रकार हम देखते हैं कि उमास्वाति और उनका तत्त्वार्थ जैनधर्म १. सद्वेद्य सम्यक्त्वं रति हास्यपु'वेदाः शुभैः नाम गोत्रे शुभं आयु पुण्यं, एतेभ्यो अन्यानि पापानि । (भगवती आराधना १६४३ पंक्ति ४ ) उद्धृत जैनसाहित्य और इतिहास पं० नाथूराम प्रेमी पृ० ५४३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
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