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________________ तत्वार्थसूत्र और उसको परम्परा : ३६५.. afer है और अन्य दर्शनों का खण्डन भी जोर पकड़ता है । ये सब बातें " सर्वार्थसिद्धि से भाष्य को प्राचीन सिद्ध करती हैं । " "यहाँ यह भी स्मरण रखना चाहिए कि जिस तरह से तत्त्वार्थसूत्र पर स्वोपज्ञ भाष्य के अतिरिक्त श्वेताम्बर और दिगम्बर टीकाएँ उपलब्ध होती हैं उस तरह से यद्यपि आज कोई यापनीय टीका उपलब्ध नहीं है किन्तु उसकी यापनीय टीकाएँ भी रही हैं और ये टीकायें भाष्य से परवर्ती होकर भी श्वेताम्बर सिद्धसेनगणि और हरिभद्र की टीकाओं से तथा दिगम्बर पूज्यपाद की टीकाओं से प्राचीन है। क्योंकि इनको उपस्थिति के संकेत सर्वार्थसिद्धि और सिद्धसेन को वृत्ति में उपलब्ध होते है । "" सर्वार्थसिद्धि के माध्यम से ही तत्त्वार्थसूत्र का प्रवेश दिगम्बर परंपरा में हुआ हैं । अतः हम कह सकते हैं कि यापनीय और श्वेताम्बर तत्वार्थ सूत्र सीधे उत्तराधिकारी है जबकि दिगम्बरों को यह यापनीयों के द्वारा प्राप्त हुआ है | तत्त्वार्थसूत्र और भाष्य में जो यापनीय और श्वेताम्बर तथ्य परिलक्षित होते हैं वे वस्तुतः उन दोनों की एक ही पूर्वज परंपरा केकारण हैं । तत्त्वार्थसूत्र और भाष्य के यापनीय होने का सबसे महत्त्वपूर्ण जो तर्क दिया जा सकता है वह यह कि उसमें पुरुषवेद, हास्य, रति और सम्यक्त्व मोहनीय को पुण्य प्रकृति कहा गया है, जबकि श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों हो सम्प्रदाय इन्हें पुण्य प्रकृति नहीं मानते हैं । सिद्धसेनगणिने तो इस सूत्र की टोका करते हुए लिखा है कि “कर्म प्रकृति ग्रन्थ का अनुसरण करने वाले तो ४२ प्रकृतियों को ही पुण्य रूप मानते हैं, उनमें सम्यक्त्व, हास्य, रति और पुरुषवेद नहीं हैं । सम्प्रदाय विच्छेद होने के कारण मैं नहीं जानता कि इनमें भाष्यकार का क्या अभिप्राय ही और कर्म प्रकृति ग्रन्थ प्रणेणताओं का क्या अभिप्राय है । चौदह पूर्वधारी है इसकी ठीक-ठीक व्याख्या कर सकते हैं ।" इसके विपरीत भगवती आराधना की १. जैनसाहित्य और इतिहास, पं० नाथुरामजी प्र ेमी, पृ० ५२८ २. वही पृ० ४४१ ३. " कर्म प्रकृतिग्रन्थानुसारिणस्तु द्वाचत्वारिंशत्प्रकृतोः पुण्याः कथयन्ति । "आसां : च मध्ये सम्यक्त्व हास्यरतिपुरुषवेदा न सन्त्येवेति । कोऽभिप्रायो भाष्यकृतः को वा कर्मप्रकृतिग्रन्थ प्रणयिनामितिसम्प्रदायविच्छेदान्मया तावन्न व्यज्ञायीति । . चतुर्दशपूर्वरादयस्तु संविदते यथावदिति निर्दोषं व्याख्यातम् ।" —-तत्त्वार्थाधिगमसूत्र भाष्य टीका (सिद्धसेन ) ८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
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