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________________ ३४६ : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय के पूर्वाचार्य वस्त्र या कम्बल रखते हुए भी प्रायः नग्न ही रहते थे, जो उनके मथुरा अंकों से सिद्ध है । इसी प्रकार डॉ० कोठिया ने बताया है कि बारह तप के प्रकार में जहाँ उत्तराध्ययन एवं व्याख्याप्रज्ञप्ति में 'संलीनता' है वहाँ तत्त्वार्थ में विविक्त शय्यासन है । अतः तत्त्वार्थ का कर्ता श्वेताम्बर परम्परा का नहीं हो सकता है । ' यहाँ भी प्रतीत यही होता है कि आदरणीय डॉ० सा० ने उत्तराध्ययन की जो गाथाएँ कहीं से लेकर यहाँ उद्धृत की हैं, उनके अतिरिक्त उत्तराध्ययन को देखा ही नहीं है । उत्तराध्ययन के तीसवें अध्याय की २८वीं गाथा में संलीनता की व्याख्या करते हुए “विवित्तसयणासणं" शब्द का स्पष्ट प्रयोग हुआ है, जो तत्त्वार्थसूत्र के तप के वर्गीकरण के अनुरूप ही है तथा हरिभद्रसूरि ने संलीनता के स्पष्टीकरण में विविक्तचर्या का उल्लेख किया है । उनके ग्रन्थ की मेरी समीक्षा के प्रत्युत्तर में आ० कोठियाजी ने विविक्तचर्या में और विविक्त- शय्यासन में भी अन्तर मान लिया है। चर्या का अर्थ चलना और शय्यासन का अर्थ सोना-बैठना करके वे इनमें अन्तर करते हैं, किन्तु चर्या का का अर्थ सदैव ही चलना नहीं होता है, व्रतचर्या, तपश्चर्या आदि में चर्या का अर्थ चलना न होकर अभ्यास या साधना है । यदि चर्या का अर्थ अभ्यास और साधना भी है तो दोनों ही शब्दों का अर्थ एकान्त स्थल में साधना करना होगा । यदि चर्या और शय्यासन का अर्थ अलग-अलग मान भी ले, तो भी मूल-प्रश्न तो विविक्त 'शय्यासन' का ही है । जब तत्त्वार्थ सूत्र ( ९ | १९ ) में और उत्तराध्ययन (३०/२८) में - दोनों में बाह्य तप में विविक्त शय्यासन शब्द का स्पष्ट उल्लेख है तो फिर दोनों में परम्परा भेद का प्रश्न ही नहीं उठता है । तत्त्वार्थ सूत्रकार को उत्तराध्ययन की परम्परा का अनुसरण करने वाला ही मानना होगा । स्पष्ट सत्य को स्वीकार न करके शब्दों के वाक् जाल में उलझाना और यह कहना कि विविक्त शय्यासन श्वेताम्बर श्रुत में नहीं है- क्या यह श्वेताम्बर आगमों के अज्ञान का परिचायक नहीं १. जैन दर्शन और प्रमाणशास्त्र परिशीलन - डॉ० दरबारीलाल जी कोठिया, पृ० ८३ २. जैन तत्त्वज्ञान-मीमांसा - डॉ० दरबारीलाल जी कोठिया, सेवा मन्दिर ट्रस्ट १९८३, पृ० २७१ बहो, पृ० २७३ - २७४ Jain Education International For Private & Personal Use Only प्रकाशक — वीरः www.jainelibrary.org
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
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