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________________ ३३६ : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय समस्त इतिहास ही अस्त-व्यस्त हो जाता है। यदि हम ऐतिहासिक क्रम से देखें तो पहले श्रावक के अणुव्रतों और उत्तरव्रतों, जिन्हें शिक्षाव्रत भी कहा गया, को अवधारणा बनी होगी। उसके बाद ही उत्तरव्रतों (शिक्षाव्रतों) का गुणवतों और शिक्षाव्रतों में विभाजन हुआ होगा । अतः अधिकांश दिगम्बर विद्वानों का यह कहना कि तत्त्वार्थसूत्र और श्वेताम्बर आगमों में गुणवतों और शिक्षाव्रतों के क्रम को लेकर अन्तर है, केवल लोगों को भ्रमित करने के लिए है या मात्र अपनी परम्परा का पोषण करने के लिए है। अब रहा प्रश्न व्रतों के क्रम का तो प्रारम्भ में यह क्रम भी सुनिश्चित नहीं रहा यदि हम श्वेताम्बर आगम उपासकदशांग और औपपातिक को ही लें तो वहाँ क्रम में अन्तर है। जहाँ औपपातिक में अनर्थदण्डविरमण को छठाँ, दिक्व्रत को सातवाँ और उपभोग परिभोग परिमाण का आठवाँ क्रम दिया गया है. वहीं उपासकदशांग में दिव्रत को छठाँ, उपभोग परिभोग परिमाण को सातवाँ तथा अनर्थदण्ड विरमण को आठवाँ स्थान दिया गया है। अतः श्रावक के द्वादश व्रतों में सुनिश्चित क्रम निर्धारण और उस क्रम के अनुसरण की स्थिति छठी शती से भी परवर्ती है। जब आगम ग्रन्थों में एवं प्राचीन दिगम्बर और यापनीय आचार्यों में ही सुनिश्चित क्रम नहीं है, तो फिर उमास्वाति पर यह दोषारोपण ही कैसे किया जा सकता है कि उन्होंने क्रम भंग किया है। जब सातों ही उत्तरव्रत या शिक्षाव्रत थे तो उनमें एक निश्चित क्रम का ही अनुसरण किया जाय, यह आवश्यक नहीं था। सिद्धसेनगणि ने भी भाष्यकार पर जो आक्षेप किया है, वह अपनी साम्प्रदायिक स्थिति के कारण ही किया है। दूसरे यह कि उनके काल तक परवर्ती आगमों में यह क्रम निश्चित हो गया था, अतः उन्हें यह असंगति प्रतीत हुई। उमास्वाति ने खान-पान से सम्बन्धित उत्तरव्रतों को एक साथ रख कर एक अपना विशेष दृष्टि का ही परिचय दिया है अतः यह कहना न्यायसंगत नहीं है कि श्रावक के व्रतों के विवेचन के सन्दर्भ में तत्त्वार्थऔर श्वेताम्बर आगमों में असंगति है अतः तत्त्वार्थ श्वेताम्बर परम्परा का ग्रन्थ नहीं है। यदि, उपासकदशा और औपपातिक सूत्र इन श्वेताम्बर मान्य दो आगमों में ही क्रमभेद हैं तो क्या वे दोनों आगम श्वेताम्बर परम्परा के नहीं माने जायेंगे। पं० जुगलकिशोर जी जब दोनों ही आगमों को श्वेताम्बर मानकर उद्धृत कर रहे हैं तो क्या वे उनके क्रमभेद को अपनी दृष्टि से ओझल किये हुए हैं ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
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