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________________ ३१६ : जैनधर्म का यापनोय सम्प्रदाय की आवश्यकता प्रतीत होने पर झोली आयी। मथुरा के अंकनों से ज्ञात होता है कि ईसा की प्रथम शती में नग्नता को मान्य रखते हुए भी इतना परिग्रह आ चुका था। जब अहिंसा की प्राथमिकता से संयमोपकरण के रूप में निर्ग्रन्थ संघ में प्रतिलेखन, वस्त्र और पात्र मान्य हुए तब वस्तुमात्र परिग्रह हैं यह परिभाषा बदलने की आवश्यकता हुई होगी और उसी में परिग्रह की यह नवीन परिभाषा आई होगी-संयमोपरकरण परिग्रह नहीं है, मूर्छा ही परिग्रह है-दशवकालिक के काल तक तो यह सब हो चुका था और तत्त्वार्थसूत्र में उसी का अनुसरण किया गया है। क्या तत्त्वार्थ और उसका स्वोपज्ञभाष्य श्वेताम्बरों के विरुद्ध है ?: दिगम्बर परम्परा के अनेक विद्वानों ने तत्त्वार्थसूत्र और उसके स्वोपज्ञभाष्य की श्वेताम्बर परम्परा में मान्य आगमों से असंगति सिद्ध कर यह बताने का प्रयास किया है कि तत्त्वार्थसूत्र और उसका भाष्य मूलतः श्वेताम्बर परम्परा का नहीं है। अतः तत्त्वार्थसूत्र की परम्परा का निर्धारण करने हेतु उनके तर्कों पर भी विचार करना आवश्यक है। (१) आदरणीय पं० जुगल किशोर जी मुख्तार ने मोक्षमार्ग के प्रतिपादन के सन्दर्भ में तत्त्वार्थसूत्र और भाष्य की श्वेताम्बर मान्य आगम से असंगति दिखाकर यह सिद्ध करने का प्रयास किया है, कि तत्त्वार्थ की त्रिविध साधना मार्ग की परम्परा श्वेताम्बर मान्य आगमों में अनुपलब्ध है, उनमें चतुर्विध मोक्षमार्ग की परम्परा है, जबकि कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में सर्वत्र त्रिविध साधना मार्ग की परम्परा पाई जाती है अतः तत्त्वार्थ श्वेताम्बर परम्परा का ग्रन्थ न होकर दिगम्बर परम्परा का ग्रन्थ है। वे लिखते हैं कि-"श्वेताम्बरीय आगम में मोक्षमार्ग का वर्णन करते हुए उसके चार कारण बतलाये हैं और उनका ज्ञान, दर्शन, चारित्र एवं तप इस क्रम से निर्देश किया है। जैसा कि उत्तराध्ययन सूत्र के २८वें अध्ययन क्री निम्न गाथाओं से प्रकट है मोक्खमग्गगई तच्च सुणेहजिणभासियं । चउकारणसंजुत्तं गाणदसण लक्खणं । नाणं च दसणं चेवचरित्तं च तवो तहा। एस मग्गुत्तिपण्णत्तो जिणेहिं वरदसिहिं ।। परन्तु ( तत्त्वार्थसूत्र के ) श्वेताम्बर सूत्रपाठ में दिगम्बर सूत्रपाठ की तरह तीन कारणों का दर्शन, ज्ञान एवं चारित्र के क्रम से निर्देश है जैसा' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
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