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________________ तत्त्वार्थसूत्र और उसकी परम्परा : ३१५ कमण्डलु के अतिरिक्त भी अन्य उपकरण रखते होंगे । अतः यह सूत्र भी दिगम्बर परम्परा के विरोध में जाता है । (५) इसी प्रकार तत्त्वार्थसूत्र का 'मूर्छा परिग्रह' नामक सूत्र भी मूलतः श्वेताम्बर मान्य आगम दशवकालिक के आधार पर बना हुआ प्रतीत होता है । दशवैकालिक को तत्त्वार्थ से प्राचीनता सर्वत्र सिद्ध है। तत्त्वार्थ का यह सूत्र दशकालिक के 'न सा परिग्गहो वुत्तो' मुच्छा परिग्गहोवुत्तो" के आधार पर लिखा गया है। मूर्छा परिग्रह यह बात दिगम्बर परम्परा के अनुकूल नहीं है, उसके अनुसार तो मात्र मूर्छा ही नहीं, वस्तु भी परिग्रह है। यदि तत्त्वार्थसूत्रकार दिगम्बर परम्परा का होता तो भाव परिग्रह के साथ द्रव्य परिग्रह की भी चर्चा करता वह ' मूर्छा परिग्रह' के साथसाथ यह भी उल्लेख करता कि वस्तु भी परिग्रह है। किन्तु यह सूत्र तो वस्त्र-पात्र वाद पोषण के लिए रास्ता साफ कर देता है। यह सूत्र उसी परम्परा का हो सकता है, जिसमें किसी सीमा तक संयमोपकरण के रूप में वस्त्र-पात्र की परम्परा का पोषण हो रहा था और उन्हें परिग्रह नहीं माना जा रहा था। तत्त्वार्थ भौर उसके भाष्य में 'मूर्छा परिग्रह' नामक सूत्र स्पष्ट रूफ से तत्त्वार्थ की परम्परा का निर्धारण कर देता है। सर्वप्रथम तो यह सूत्र दशकालिक का अनुसरण करते हुए परिग्रह के भाव पक्ष को प्रधानता देता है और द्रव्य (वस्तु) पक्ष को गौण कर देता है । निर्ग्रन्थ परम्परा में अपरिग्रह और अचेलता पर अति बल था, अतः सामान्य रूप से यह समस्या उत्पन्न हुई कि संयमोपकरण के रूप में प्रतिलेखन एवं वस्त्र-पात्र भी परिग्रह है अतः उनका ग्रहण नहीं करना चाहिए। एक ओर अहिंसा के परिपालन लिए प्रतिलेखन ( रजोहरण/पिच्छी ) का ग्रहण आवश्यक था तो दूसरी ओर बीमार और वृद्धों की परिचर्या के लिए पात्र की आवश्यकता हुई । पुनः एक ही घर से सम्पूर्ण आहार ग्रहण करने पर भी या तो उसे पुनः भोजन बनाना पड़ सकता था या फिर भूखा रहना होगा-दोनों स्थिति में हिंसा थो-इसी प्रकार यदि वृद्ध, ग्लान, रोगी आदि की परिचर्या नहीं की जाती तो करुणा की समाप्ति और हिंसा में भागीदार बनने का प्रश्न था। इन्हीं कारणों से पात्र आवश्यक बना । पात्र के साथ पात्र की सफाई तथा पात्र को ढकने के लिए वस्त्र की आवश्यकता प्रतीत हुई। पुनः भोजन, पानी एवं शौच आदि के लिए अलग-अलग पात्र १. दशवकालिक । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
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