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________________ तत्त्वार्थसूत्र और उसकी परम्परा : ३०७ २. तत्वार्थवार्तिक में अनेक जगह भाष्यमान्य सूत्रों का विरोध किया है और भाष्य के मत का भी कई जगह खण्डन किया है । ३ पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री और पं० महेन्द्रकुमार जी न्यायाचार्य भी मानते हैं कि अकलंकदेव भाष्य से परिचित थे। डॉ० जगदीशचन्द्र जो शास्त्री एम० ए० ने भी भाष्य और वार्तिक के अनेक उद्धरण देकर इस बात को सिद्ध किया है। ४ वीरसेन ने अपनी जयधवला टीका शक संवत् ७३८ (वि० सं० ८७३ ) में समाप्त की है। इसमें भी भाष्यान्तको उक्त ३२ कारिकायें उद्धृत हैं। इससे भी भाष्यकी प्राचीनता और प्रसिद्धि पर प्रकाश पड़ता १. तृतीय अध्याय के पहले भाष्यसम्मत सूत्र में 'पृथुतरा' पाठ अधिक है । इसको लक्ष्य करके राजवातिक ( पृ० ११३ ) में कहा है-“पृथुतरा इति केषांचित्पाठः ।" चौथे अध्याय के नवें सूत्र में 'द्वयोर्द्वयोः' पद अधिक है । इस पर राजवातिक ( पृ० १५३ ) में लिखा है--'द्वयोर्द्वयोरिति वचनासिद्धिरिति चेन्न आर्षविरोधात् ।" इसी तरह पांचवें अध्याय के ३६३ सूत्र 'बन्धे. समाधिको पारिणामिको' को लक्ष्य करके पृ० २४२ में लिखा है-"समा धिकावित्यपरेषां पाठः-स पाठो नोपपद्यते । कुतः, आर्षविरोधात् ।" २. पांचवें अध्याय के अन्त में 'अनादिरादिमांश्च' आदि तीन सूत्र अधिक है। पृ० २४४ में इन सूत्रों के मत का खंडन किया है। इसी तरह नवें अध्याय के ३७ वें सूत्र में 'अप्रमतसंयतस्य' पाठ अधिक है, उसका विरोध करते हुए पृ० ३५४ में लिखा है, "धय॑मप्रमत्तस्येति चेन्न । पूर्वेषां विनिवृत्त प्रसंगात् ।” ३. देखो, न्यायकुमुदचन्द्र प्रथम भाग की प्रस्तावना पृ० ७१ । ४. देखो, अनेकान्त वर्ष ३, अंक ४-११ में 'तत्त्वार्थाधिगमभाष्य और अकलंक', जैन सिद्धान्तभास्कर वर्ष ८ और ९ तथा जैनसत्यप्रकाश वर्ष ६ अंक ४ में तत्त्वार्थभाष्य और राजवातिक में शब्दगत और चर्चागत साम्य तथा सूत्र पाठसम्बन्धी उल्लेख ।' ५. जयधवला में भाष्य की जो उक्त कारिकायें उद्घ त हैं, उनके बाद जयधवला कार कहते हैं-'एवमेत्तिएण पबंधेण णियाणफलपज्जवसाणं ।' इस वाक्य को देखकर एक विद्वान् ने ( अनेकान्त वर्ष ३, अंक ४ ) कल्पना की थी कि पूर्वाचार्य का यह कोई प्राचीन प्रबन्ध रहा होगा जिस पर से राजवार्तिक में भी वे कारिकायें उद्धृत की गई है। परन्तु, यह 'एत्तिएण पबन्धेण' पद जयधवला में उक्त प्रसंग में ही नहीं, और बोसों जगह आया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
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