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३०६ : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय किसी दूसरी व्याख्या या टीका का खयाल रखकर सूत्रार्थ किया गया है। भाष्य में कहीं किसी सूत्र के पाठ-भेद की चर्चा है और न सूत्रकार के प्रति कहीं सम्मान ही प्रदर्शित है।
३. भाष्य के प्रारम्भ की ३१ कारिकायें मूल सूत्र-रचना के उद्देश्य से और मूल ग्रंथ को लक्ष्य करके ही लिखी गई हैं। इसी प्रकार भाष्यान्त की प्रशस्ति भी मूलसूत्रकार की है। भाष्यकार सूत्रकार से भिन्न होते
और उनके समक्ष सूत्रकार की कारिकायें और प्रशस्ति होती, तो वे स्वयं भाष्य के प्रारम्भ में और अन्त में मंगल और प्रशस्ति के रूप में कुछ न कुछ अवश्य लिखते । इसके सिवाय उक्त कारिकाओं की और प्रशस्ति की टीका भी करते।' भाष्य की प्राचीनता
१. तत्वार्थ की सुप्रसिद्ध टोका तत्त्वार्थवार्तिक के कर्ता अकलंकदेव विक्रम की आठवीं शताब्दि के हैं । वे इस भाष्य से परिचित थे। क्योंकि उन्होंने अपने ग्रन्थ के अन्त में भाष्यान्त की ३२ कारिकायें 'उक्तंच' कहकर उद्धृत की हैं। इतना ही नहीं, उक्त कारिकाओं के साथ का भाष्य का गद्यांश भी प्रायः ज्योंका त्यों दे दिया है। इसके सिवाय आठवीं 'दग्धे बोजे' आदि कारिका को और भी एक जगह-'उक्तं च' रूप से उद्धृत किया है। १. देखो, पं सुखलालजीकृत हिन्दी तत्त्वार्थ की भूमिका पृ० ४५-५० । २. "ततो वेदनीयनामगोत्रआयुष्कक्षयात्फलबन्धननिर्मुक्तो निर्दग्धपूर्वोपात्तेन्धनो
निरुपादान इवाग्निः पूर्वोपात्तभववियोगाद्धत्वभावाच्चेत्तरस्याप्रादुर्भावाच्छान्तः संसारसुखमतीत्यान्त्यान्तिकमैकान्तिकं निरुपम निरतिशयं नित्यं निर्वाणमुखमवाप्नोतीति । एवं तत्त्वपरिज्ञानाद्विरक्तस्यात्मनो भृशं"."-भाष्य ।
"ततः शेषकर्मक्षयाभावबन्धनिमुक्तः निर्दग्धपूर्वोपादनेन्धनो निरुपादान इवाग्निः पूर्वोपात्तभववियोगाद्धत्वभावाच्चोत्तरस्याप्रादुर्भात्सान्तसंसारसुखमतीत्य आत्यन्तिकमैकान्तिकं निरुपम निरतिशयं निर्वाणसुखमवाप्नोतीति । तत्त्वार्थभावनाफलमेतत् । उक्तं च-एवं तत्त्वपरिज्ञानाद्विरक्तस्यात्मनो भृशं."-राजवार्तिक (भारतीय ज्ञानपीठ बनारस में राजवार्तिक की जो ताडपत्र की प्रति आई है, उसमें ‘एवं तत्त्वपरिज्ञानाद्विरक्तस्य' ही पाठ हैं, छपी प्रति जैसा 'सम्यक्त्वज्ञानचरित्रसंयुक्तस्य' नहीं। यह पिछला पाठ सम्पादकों द्वारा अमृतचन्द्रसूरि के तत्त्वार्थसार' के अनुसार बनाया गया है और तत्त्वार्थसार को राजवार्तिक का पूर्ववर्ती समझ लिया गया है जो कि
भ्रम है।) ३. तत्त्वार्थवार्तिक (मुद्रित) पृ० ३६१ ।
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