________________
तत्त्वार्थसूत्र और उसकी परम्परा : २८७ वहाँ भाष्य में अव्रत प्रथम और इन्द्रिय तीसरे स्थान पर है, किन्तु यह कोई सैद्धान्तिक असंगति नहीं है, विवेचन में क्रम का अन्तर है। विस्मति से भाष्य लिखते समय यह अन्तर आ गया होगा। क्रम का यह अन्तर भाष्य करते समय आया हो या प्रतिलिपि करते समय हुआ हो हम आज कुछ भी नहीं कह सकते । यह सत्य है कि सिद्धसेनगणि को जो प्रति मिली उसमे यह अन्तर था। पूनः भाष्यकार और सिद्धसेनगणि में भी तीन-चार सौ वर्ष का अन्तर है अतः ऐसी भूल मुखाग्र परम्परा में भी हो सकती है किन्तु इस सबसे यह कहीं फलित नहीं होता है कि दोनों में सैद्धान्तिक असंगति है। ऐसा क्रम भंग एक ही लेखक की दो कृतियों में भी अनेक बार हो जाता है, अतः इस आधार पर यह कहना अनुचित होगा कि भाष्य स्वोपज्ञ नहीं है। पुनः श्वेताम्बर मान्य मूलपाठ की आगम से जो संगति है जिसे स्वयं मुख्तार जो दिखा रहे हैं, वह यही सिद्ध करती है कि मूलपाठ आगमिक परम्परा के अनुरूप है और स्वार्थसिद्धि, राजवातिक और श्लोकवार्तिक के पाठ स्वयं भाष्य के क्रम के आधार पर सुधारे गये हैं, अतः परवर्ती भी हैं।
यदि वे क्रमभंग को बहुत बड़ी असंगति मानते हैं, तो फिर संख्या भेद तो महान असंगति होगी । इन्हीं आस्रव के कारणों की चर्चा के प्रसंग में ही हम देखते हैं कि जहाँ कुन्दकुन्द समयसार में 'प्रमाद' को छोड़कर मात्र मिथ्यात्व, अवत, कषाय और योग ऐसे चार कारण मानते हैं, वहाँ तत्त्वार्थ मूल, सर्वार्थसिद्धि, राजवार्तिक, श्लोकवार्तिक, आदि सभी पाँच कारण मानते हैं। क्या संख्या भेद की इस असंगति के आधार पर यह कहा जा सकता है कि कुन्दकुन्द और सर्वार्थसिद्धिकार एक ही परम्परा के नहीं हो सकते? विवेचन में क्रम का व्यतिक्रम या संख्या भेद एक लेखक की कृति में भी सम्भव होता है, अतः इस आधार पर यह कहना कि भाष्य स्वोपज्ञ नहीं है, एक दुराग्रह ही होगा।
(iv) आदरणीय मुख्तारजी तत्त्वार्थसूत्र और तत्त्वार्थभाष्य में एक असंगति यह भी दिखाते हैं कि
चौथे अध्याय का चौथा सूत्र इस प्रकार है
"इन्द्र-सामानिक-त्रायस्त्रिश-पारिषद्याऽऽत्मरक्ष-लोकपाला-नीकप्रकीर्णका-ऽऽभियोग्य-किल्विषिकाश्चैकशः ।"
इस सूत्र में पूर्वसूत्रके निर्देशानुसार देवनिकायों में देवों के दश भेदों का उल्लेख किया है । परन्तु भाष्य में 'तद्यथा' शब्द के साथ उन भेदों को जो गिनाया है उसमें दश के स्थान पर निम्न ग्यारह भेद दे दिये हैं :
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org