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तत्त्वार्थसूत्र और उसकी परम्परा : २७७ नहीं है ? पुनः प्रशमरति में यह श्लोक षड्जीवनिकाय को सूचित करने के सन्दर्भ में आया है न किस-स्थावर के वर्गीकरण के सन्दर्भ में। पूनः यह श्लोक उत्तराध्ययन, दशवकालिक एवं पंचास्तिकाय में भी भाव की दृष्टि समान रूप से पाया जाता है। वस्तुतःप्रशमरति और तत्त्वार्थ एक ही आगमिक परम्परा के ग्रन्थ है।
इस प्रकार तत्त्वार्थ, उसके भाष्य और प्रशमरति में जो वैषम्य सिद्ध करके उनको पृथक् बताने का प्रयास किया गया है, वह निराधार सिद्ध हो जाता है।
पुनः तत्त्वार्थ और प्रशमरति में साम्यता के अनेकानेक उदाहरण पं० सुखलालजी की भूमिका से उद्धत करके स्वयं कूसूम पटोरिया ने दिये ही हैं।' अतः विद्वानों को उन पर भी विचार लेना चाहिए। उनमें सबसे महत्त्वपूर्ण समानता यह है कि दोनों में श्रावक के व्रतों के नाम और क्रम एक समान है। तत्त्वार्थ (७/१५-१७) में इनका जो क्रम है, वह प्रशमरति (३०३-३०३ ) को छोड़कर अन्यत्र कहीं भी उपलब्ध नहीं होता है। इसी प्रकार दोनों में काल का लक्षण समान शब्दावली में दिया गया है। इस साम्य से तो यही सिद्ध होता है कि तत्वार्थ, तत्त्वार्थभाष्य और प्रशमरति एक ही व्यक्ति की रचनाएँ हैं। उनमें एक व्यक्ति के जीवन की दृष्टि से कालक्रम भेद और विचार भेद हो सकता है, किन्तु वे भिन्न कृतक किसो भी अवस्था में नहीं हो सकती। व्यावहारिक अनुभव में भी हम यह पाते हैं कि, 'एक ही व्यक्ति के जीवन में, कालक्रम में कुछ मान्यताएँ बिल्कुल बदल जाती हैं, तो यदि तत्त्वार्थभाष्य और प्रशमरति में कहीं क्वचित् मान्यता भेद, जो कि वस्तुतः तो नहीं है, यदि दिखाई भी पड़े तो इस आधार पर यह कल्पना कर लेना कि वे भिन्न व्यक्ति की रचनाएँ हैं, एक भ्रान्त अवधारणा है ।
इसी प्रसंग में कुसुम पटोरिया का यह कथन भी विचारणीय है, "इन ग्रन्थों के सूक्ष्म अन्तः परीक्षण से हमें तो यही अवगत होता है कि प्रशमरतिप्रकरणकार के समक्ष तत्त्वार्थसूत्र और भाष्य विद्यमान थे। यह इसलिए कह सकते हैं कि प्रशमरतिप्रकरणकार ने पूर्व कवियों द्वारा रचित प्रशमजननशास्त्रपद्धतियों के आधार-ग्रहण का जो उल्लेख किया है, इससे वे निश्चय ही उत्तरकालीन और भिन्न समयवर्ती हैं। इस सम्पूर्ण विवेचन का निष्कर्ष यह है कि तत्त्वार्थसूत्र पहले रचा गया और उसका भाष्य
१. देखें-यापनीय और उनका साहित्य, पृ० ११५-११६ ।
-तत्त्वार्थसूत्र, विवेचक पं० सुखलालजी
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