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________________ २७६ : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय कुन्द के एक ही ग्रन्थ में ये दोनों दृष्टिकोण एक साथ उपलब्ध हैं तो क्या यह माना जायेगा कि पंचास्तिकाय दो भिन्न आचार्यों की रचना है या वह मात्र एक संकलित ग्रन्थ है। प्रशमरति और तत्त्वार्थमूल तथा तत्त्वार्थ भाष्य में जिस अन्तर को इंगित करके हमारे दिगम्बर विद्वान् उन्हें दो भिन्न व्यक्तियों की रचना सिद्ध करते हैं, क्या वे अपने उसी तर्क के आधार पर पंचस्तिकाय को दो भिन्न व्यक्तियों को रचना मानने को तैयार हैं ? वस्तुतः वर्गीकरण की ये जो दो शैलियाँ उपलब्ध होती हैं वे त्रस एवं स्थावर के वर्गीकरण के आधार पर नहीं है अपितु गतिशीलता और इन्द्रिय-संख्या इन दो आधारों पर है । अतः इन दोनों प्रकार की शैलियों में सैद्धान्तिक विरोध नहीं है। जब षट्जीवनिकाय को एकेन्द्रिय और द्वीन्द्रिय आदि के आधार पर वर्गीकृत करना होता है, तो इस वर्गीकरण की दृष्टि से पृथ्वी, अप, तेजस्, वायु और वनस्पति को एक वर्ग में और त्रस को दूसरे वर्ग में रखा जाता है। किन्तु जब गतिशीलता की दृष्टि से वर्गीकरण किया जाता है, जो पृथ्वी, अप और वनस्पति को स्थावर और अग्नि, वायु और उदार-त्रस को त्रस कहा जाता है। वस्तुतः ये दोनों वर्गीकरण दो भिन्न दृष्टिकोणों पर आधारित हैं। हमारे विद्वान् वर्गीकरणों के इन दो दृष्टिकोणों को एक साथ मिलाकर भ्रान्ति उत्पन्न कर देते हैं। आगम यग में ऐन्द्रिक आधार से जब वर्गीकरण किया जाता था, तो इन पाँचों को एकेन्द्रिय वर्ग में और त्रस को एकेन्द्रियेतर वर्ग में रखा जाता है, किन्तु जब गतिशीलता के आधार पर वर्गीकरण किया जाता है तब पृथ्वी, अप और वनस्पति को अगतिशील अर्थात् स्थावर में द्वीन्द्रिय आदि को गतिशील मानकर त्रस में वर्गीकृत किया जाता है। अतः वर्गीकरण के इस प्रश्न को लेकर जो दिगम्बर विद्वान् तत्त्वार्थ और उसके भाष्य तथा प्रशमरति को भिन्न कृतक सिद्ध करना चाहते हैं, वे एक भ्रान्त अवधारणा को खड़ी करना चाहते हैं। जिस तर्क का वे यहाँ भिन्न कृतकता सिद्ध करने हेतु उपयोग करते हैं, जब वही तर्क कुन्दकुन्द के प्रसंग में उन पर लागू होता है तब वे असमंजस में पड़ जाते हैं । क्या पंचास्तिकाय की दो भिन्न मतों को प्रस्तुत करने वाली ये गाथायें एक कृतक नहीं है ? क्या इस आधार पर यह कहा जाय कि सर्वार्थसिद्धिमान्य तत्त्वार्थसूत्र का पाठ और पंचास्तिकाय के कर्ता एक ही सम्प्रदाय के नहीं है ? दूसरे शब्दों में कुन्दकुन्द दिगम्बर परम्परा के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
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