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२७४ : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही परम्पराओं में पृथ्वी, अप, अग्नि, वायु और वनस्पति इन पाँचों को स्थावर माना जाता है, किन्तु आगमिक परम्परा में इनके वर्गीकरण की भिन्न शैलियाँ रही हैं और उसमें भी अनेक मत-मतान्तर रहे हैं । तत्त्वार्थ का श्वेताम्बर परम्परा का भाष्यमान्य पाठ पृथ्वी, अप और वनस्पति-इन तीन को स्थावर और अग्नि, वायु तथा द्वीन्द्रिय आदि को बस निकाय में वर्गीकृत करता है। तत्त्वार्थ और तत्त्वार्थभाष्य का यह पाठ उत्तराध्ययन के ३६वें अध्याय में उपलब्ध दृष्टिकोण के समान ही है। किन्तु आचारांग से इस अर्थ में भिन्न है कि जहाँ आचारांग में अग्नि को स्थावर माना गया है, वहाँ तत्वार्थ में उसे अस कहा गया है । आगमों में षट्नोवनिकाय के वर्गीकरण की अनेक शैलियाँ प्रचलित रही हैं और उनमें परिवर्तन भी होता रहा है। आचारांग में वायु और द्वीन्द्रिय आदि को बस माना गया, क्योंकि आचारांगकार वायकाय की विवेचना त्रसकाय के पश्चात् करता है। उत्तराध्ययन में अग्नि को उसमें सम्मिलित करके अग्नि, वायु और द्वीन्द्रियादि को त्रस कहा गया है, किन्तु दूसरी ओर उत्तराध्ययन के २६वें अध्ययन की ३१वीं गाथा में तथा दशवकालिक के चौथे अध्याय में यद्यपि त्रस और स्थावर का स्पष्ट नाम-निर्देश नहीं है, फिर भी उनको विवेचन शैली से ऐसा लगता है कि वहाँ पृथ्वी, अप, अग्नि, वायु और वनस्पति इन पाँच को स्थावर ही माना गया होगा। क्योंकि इन पाँचों का उल्लेख करने के बाद बस का उल्लेख हुआ है। षट्जीवनिकाय के वर्गीकरण के इन दोनों दृष्टिकोणों में दशवकालिक को और उतराध्ययन के २६वें
१. तुलनीय-तत्त्वार्थ २०१३-१४ तथा उत्तराध्ययन ३६ । २. देखें-आचारांगसूत्र प्रयम श्रुत स्कन्ध प्रथम अध्ययन, उद्देशक ६ एवं ७ । ३. पुढवी आउजीवा य तहेव य वणस्सई ।
इच्चेए थावरा तिविहा तेसिं भेए सुणेह मे ॥ तेऊ वाऊ य बोद्धव्वा उराला य तसा तहा ।
इच्चए तसा तिविहा तेसिं भेए सुणेह मे ॥-उत्तराध्ययन ३६।६९, १०७ . ४. पुढवी आउक्काए तेऊ वाऊ वनस्सइ तसाण ।
पडिलेहणं आउत्तो छण्हं आराहओ होइ ॥-उत्तराध्ययन २६।३१ ५. तं जहा पुढविकाइया, आउकाइया, तेउकाइया, वाउकाइया, वनस्सकाइया, तसकाइया ।
दशवकालिक, अध्याय ४।१ ज्ञातव्य है कि प्रशमरति की स्थिति दशवकालिक के समान है ।
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