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________________ तत्त्वार्थसूत्र और उसकी परम्परा : २७३ है। इस सन्दर्भ में यह भी स्मरण रखना होगा कि उमास्वाति के काल तक महावीर के संघ में विलीन पापित्यों की पञ्चास्तिकाय को द्रव्य मानने की और काल को स्वतंत्र द्रव्य नहीं मानने की परम्परा क्षीण हो रही थी और काल को स्वतंत्र द्रव्य मानने का पक्ष मजबूत होता जा रहा था। वह एक संक्रमण काल था, अतः उनके लिए तटस्थ रूप से उस विलुप्तप्रायः मान्यता का संकेत कर देना हो पर्याप्त था, उसे मानना आवश्यक नहीं था । पुनः ये दोनों ही परम्पराएँ आगमिक हैं और वे उमास्वाति को उसी आगमिक धारा का सिद्ध करती हैं। (iv) प्रशमरति को तत्त्वार्थसूत्र और उसके भाष्य के कर्ता से भिन्न किसी अन्य की कृति बताने हेतु दिगम्बर विद्वानों द्वारा एक तर्क यह भी दिया जाता है कि बस और स्थावर के वर्गीकरण को लेकर भी दोनों में भेद पाया जाता है। जहाँ प्रशमरति में जीव के भेदों का वर्गीकरण करते हुए पाँच स्थावरों का विवेचन है वहाँ तत्त्वार्थ और तत्त्वार्थभाष्य में तेजस्कायिक और वायुकायिक जोवों को अस कहा गया है, जबकि प्रशमरति इन दोनों को स्थावरों में वर्गीकृत करती है। सुश्री कुसुम पटोरिया के अनुसार यह एक सैद्धांतिक मतभेद है और एक ही कर्ता की दो भिन्न कृतियों में इस प्रकार का सैद्धांतिक मतभेद यही सिद्ध करता है कि वे भिन्न कृतक हैं । तत्त्वार्थसूत्र के कर्ता प्रशमरति के कर्ता से भिन्न है और वे उनके उत्तरवर्ती हैं । मेरी दृष्टिसे इस सन्दर्भ में विशेष रूप से विचार करने की आवश्यकता है। ऐतिहासिक दृष्टि से आगमिक मान्यताओं का गम्भीर अध्ययन किये बिना इस तरह की बातें करना हास्यास्पद लगता है। षट्जीवनिकायों में पृथ्वी, अप, अग्नि, वायु, वनस्पति और त्रस ये षट् प्रकार के जीव आते हैं किन्तु इन षट्जीवनिकायों में कौन स है और कौन स्थावर ? इस प्रश्न को लेकर प्राचीनकाल से ही जैन परम्परा में भिन्न-भिन्न धारणाएँ उपलब्ध होती हैं। यद्यपि लगभग छठी शती से १. क्षित्यम्बुवह्निपवनतरवस्त्रसाश्च षड्भेदा ।-प्रशमरति १९२ । २. तेजोवायू द्वीन्दियादयश्च वसाः । तत्त्वार्थ २।१४ ज्ञातव्य है कि सर्वार्थसिद्धि मान्य पाठ में मात्र 'द्वीन्द्रियादयश्च त्रसाः' इतना पाठ है, उसमें वायु और तेज को सूत्र २।१३ में सम्मिलित किया गया है । ३. यापनीय और उनका साहित्य, डॉ० कुसुम पटोरिया, पृ० ११७ । १८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
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