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तत्त्वार्थसूत्र और उसकी परम्परा : २४१ टीका में वीरसेन (९ वीं शती उत्तरार्ध) ने जीवस्यान के काल अनुगोग द्वार में तत्त्वार्थसूत्रकार के नाम के उल्लेखपूर्वक तत्त्वार्थसूत्र का एक सूत्र उद्धृत किया है-"तहगिद्धपिछाइरियाप्पयासिद तच्चत्थसुत्तेवि वर्तनापरिणाम क्रियाः परत्वापरत्वे च कालस्य' (धवलाटीका समन्वित षट्खण्डागम सं० हीरालाल); दूसरे विद्यानन्द (९ वीं शती उत्तरार्ध) ने भी तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक में “एतेन गृद्धपिच्छाचार्यपर्यन्तमुनिसूत्रेण व्यभिचारता निरस्ता ( तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, निर्णयसागरप्रेस पृ० ६) के रूप में तत्वार्थसूत्र के कर्ता को गृद्धपिच्छाचार्य माना है। तीसरे वादिराजसूरि ने पार्श्वनाथचरितमें 'गृद्धपिच्छं नतोऽस्मि' कहकर गृद्धपिच्छाचार्य का उल्लेख किया है। इनमें दो प्रमाण नवीं शती के उत्तरार्ध एवं एक प्रमाण ग्यारहवीं शती का है। जबकि तत्त्वार्थ के कर्ता के रूप में दिगम्बर परम्परा में उमास्वाति के नाम के जो उल्लेख मिलते हैं वे सब विक्रम की १३ वीं शताब्दी पूर्व के नहीं है। इससे ज्ञात होता है कि ११ वीं शताब्दी तक जैन परम्परा में तत्त्वार्थ के कर्ता गृध्रपिच्छ थे ऐसी मान्यता थी।" पुनः पं० फूलचन्दजी की दृष्टि में तत्त्वार्थसूत्र मूल के रचनाकार गृध्रपिच्छ और तत्त्वार्थभाष्य के रचनाकार उमास्वाति हैं । इन दोनों नामों के घालमेल से तत्त्वार्थ के कर्ता गृध्रपिच्छ उमास्वाति है ऐसी धारणा बनी। किन्तु दिगम्बर परम्परा के ही शिलालेखों में गध्रपिच्छ को उमास्वाति का विशेषण माना गया है शिलालेख क्र० १०८ और १५५ से इस तथ्य की पुष्टि होती है ।' गध्रपिच्छ कभी भी किसी आचार्य का नाम नहीं हो सकता है वह तो विशेषण ही रहेगा। वस्तुतः तत्त्वार्थसूत्र के कर्ता उमास्वाति ही है और गृध्रपिच्छ उनका विशेषण है-इस बात को दिगम्बर
१. (अ) अभूदुमास्वातिमुनिः पवित्रे वशे तदीये सकलार्थवेदी ।
सूत्रीकृतं येन जिनप्रणीतं शास्त्रार्थजातं मुनिपुंगवेन ।। स प्राणिसंरक्षणसावधानो बभार योगी किल गृध्रपक्षान् ।
तदा प्रभृत्येव बुधा यमाहुराचार्यशब्दोत्तर गृध्रपिच्छम् ॥ (ब) श्रीमानुमास्वातिरयं यतीशस्तत्त्वार्थसूत्रं प्रकटीचकार ।
यन्मुक्तिमार्गाचरणोद्यतानां पाथेयमयं भवति प्रजानाम् ॥ तस्यैव शिष्योऽजनि गृनपिच्छ द्वितीय संज्ञस्य बलाकपिच्छः । यत्सूक्तिरत्नानि भवन्ति लोके मुक्त्यंगनामोहनमण्डनानि ॥
-सर्वार्थसिद्धिः भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, प्रस्तावना पृ० ६३ ।
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