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________________ २४० : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय सूत्र की रचना उत्तर भारत की उस निर्ग्रन्थ परम्परा में हुई, जो उसकी रचना के पश्चात् एक-दो शताब्दियों में ही सचेल अचेल ऐसे दो भागों में स्पष्ट रूप से विभक्त हो गई जो क्रमशः श्वेताम्बर और यापनीय ( बोटिक ) के नाम से जानी जाने लगी । जहाँ तक दिगम्बर परम्परा का प्रश्न है, उन्हें यह ग्रन्थ उत्तर भारत की अचेल परम्परा, जिसे यापनीय कहा जाता है, से ही प्राप्त हुआ । जहाँ तक इस ग्रन्थ के आधारभूत साहित्य का प्रश्न है, इसका आधार न तो षट्खण्डागम और कसायपाहुड़ आदि यापनीय ग्रन्थ है और न ही कुन्दकुन्द के दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थ है | श्वेताम्बर परम्परा में मान्य वलभी वाचना के जो आगम वर्तमान में प्रचलित हैं वे भी इसका आधार नहीं माने जा सकते क्योंकि यह वाचना उमास्वाति के पश्चात् लगभग ईसा की पाँचवीं शती के उत्तरार्ध में हुई है । आर्य स्कन्दिल को अध्यक्षता में हुई माथुरी वाचना के आगम इसका आधार है ऐसा भी निर्विवाद रूप से नहीं कहा जा सकता, क्योंकि एक तो यह वाचना भी उमास्वाति के किञ्चित् पश्चात् ईसा की चौथी शती में ही हुई है । दूसरे इसके आगम आज उपलब्ध नहीं है । संभावना यही है कि इस ग्रन्थ की रचना के आधार उच्चैर्नागर शाखा में प्रचलित फल्गुमित्र के काल के आगम ग्रन्थ रहे हो । यद्यपि इतना निश्चित है कि ये आगम वर्तमान में श्वेताम्बर परम्परा में मान्य आगमों से बहुत भिन्न नहीं थे । फिर भी क्वचित् पाठ भेदों का होना असम्भव नहीं है । आगे हम इन्हीं प्रश्नों पर थोड़ी गहराई से चर्चा करेंगे और यह देखने का प्रयत्न करेंगे कि तत्त्वार्थसूत्र और उसके कर्ता की वास्तविक परम्परा क्या है ? तत्त्वार्थ सूत्र के कर्ता-तत्त्वार्थसूत्र और उसके स्वोपज्ञ भाष्य के कर्ता के रूप में उमास्वाति का नाम सामान्य रूप से सर्वमान्य है किन्तु पं० फूलचन्द जी सिद्धान्तशास्त्री ने उसके कर्ता के रूप में उमास्वाति के स्थान पर गुद्धपिच्छाचार्य को स्वीकार किया । वे इस बात पर भी बल देते हैं कि दिगम्बर परम्परा में जो तत्त्वार्थ के कर्त्ता के रूप में उमास्वाति का उल्लेख मिलता है वह परवर्ती है उनके शब्दों में वाचक उमास्वाति ने तत्त्वार्थाधिगम की रचना की थी किन्तु यह नाम तत्त्वार्थसूत्र का न होकर तत्त्वार्थ के भाष्य का है' । पं० फूलचन्द जी ने इस सम्बन्ध में तीन प्रमाण प्रस्तुत किये है। प्रथम प्रमाण यह है कि षट्खण्डागम की घवल । १. सर्वार्थसिद्धि पं० फूलचन्द जी सिद्धान्तशास्त्री - भारतीय ज्ञानपीठ - काशी, प्रस्तावना पृ० ६४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
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