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________________ विषय-प्रवेश : ● टीका में बोटिक चर्चा का उपसंहार करते हुए स्त्रीमुक्ति की चर्चा के लिए उत्तराध्ययन के छत्तीसवें अध्ययन को टोका को देख लेने को कहा है। वह भी उनके मत में बोटिक और दिगम्बर को एक मानने के भ्रम के कारण है । इस समग्र चर्चा से इतना स्पष्ट है कि बोटिक दिगम्बर नहीं थे। इस समग्र चर्चा से दो फलित निकलते हैं - प्रथम तो यह कि श्वेताम्बर ग्रन्थों में बोटिक नाम से जिस संप्रदाय का उल्लेख हुआ है, वह दिगम्बर संप्रदाय से भिन्न है और जिसे अन्यत्र यापनीय नाम से जाना जाता है। दूसरे दिगम्बर संप्रदाय - जो स्त्रीमुक्ति का निषेध करता हैउससे प्रारंभिक श्वेताम्बर आचार्य परिचित नहीं थे" । " बोटिकों की उत्पत्ति - कथा से भी यह स्पष्ट है कि इन्होंने जिनकल्प का विच्छेद स्वीकार नहीं किया था और वस्त्र को परिग्रह मानकर मुनि के लिए अचेलकता का ही प्रतिपादन किया था । शिवभूति द्वारा अपनी बहन उत्तरा को वस्त्र रखने की अनुमति देना यह भी सूचित करता है कि इस सम्प्रदाय में साध्वियां सवस्त्र रहती थीं । इस सम्प्रदाय के तत्कालीन परम्परा से मतभेद के जो उल्लेख मिलते हैं उनसे यही फलित होता है कि इनका मुख्य विवाद मुनि के सचेल और अचेल होने के सम्बन्ध में था । स्त्रीमुक्ति और केवली - कवलाहार के सम्बन्ध में इनका कोई मतभेद नहीं था अथवा यह कहें कि यह प्रश्न उस समय उत्पन्न ही नहीं हुआ था । विशेषावश्यकभाष्य में इन्हें आचारांग आदि आगमों को स्वीकार करने वाला माना गया है । अतः बोटिक दिगम्बर परम्परा के समान न तो स्त्री-मुक्ति और केवल मुक्ति का निषेध करते थे और न जैनागमों का पूर्णतः विच्छेद ही स्वीकार करते थे । मात्र यह कहते थे कि आगमों में जो वस्त्र - पात्र के उल्लेख हैं, वे आपवादिक स्थिति के हैं । इस प्रकार बोटिक स्त्री-मुक्ति और केवली - कवलाहार का निषेध करने वाले और आचारांग आदि आगमों को विच्छिन्न मानने वाले दिगम्बर सम्प्रदाय से भिन्न थे । यदि हम बोटिकों की इन मान्यताओं की तुलना यापनीय परम्परा से करते हैं तो दोनों में कोई अन्तर दृष्टिगोचर नहीं होता । यापनीयों का जो भी साहित्य उपलब्ध है, उससे भी स्पष्ट रूप से यही निष्कर्ष निकलता है कि यापनीय यद्यपि मुनि की अचेलता पर बल देते थे किन्तु दूसरी ओर वे स्त्री-मुक्ति, अन्य तैथिकों (दूसरी धर्म परंपरा) की मुक्ति, केवलोकवला१. उत्तराध्ययन- शान्त्याचार्य की टीका पृ० १८१ । २. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा ३०५४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
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