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२३२ : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय
की दृष्टि से इस पर विचार करें तो यह पाते हैं कि इस काल में उत्तर भारत में आचार और विचार के क्षेत्र में जैन संघ में विभिन्न मान्यताएँ जन्म ले चुकी थीं, किन्तु अभी साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण होकर श्वेताम्बर, दिगम्बर, यापनीय आदि रूपों में नहीं हो पाया था । वह युग था जब जैन परम्परा में तार्किक चिन्तन प्रारम्भ हो चुका था और धार्मिक एवं आगमिक मान्यताओं को तार्किक रूप प्रदान किया जा रहा था और यदि तर्क और आगमिक मान्यताओं में कोई अन्तर होता था तो तर्क को प्रधानता दी जाती थी । सिद्धसेन का आगमिक मान्यताओं को तार्किकता प्रदान करने का प्रयत्न भी इसी तथ्य की पुष्टि करता है। फिर भी उस युग में श्वेताम्बर, दिगम्बर और यापनीय ऐसे सम्प्रदाय अस्तित्व में नहीं आ पाये थे । श्वेताम्बर एवं यापनीय सम्प्रदाय के सम्बन्ध में स्पष्ट नाम निर्देश के साथ जो सर्वप्रथम उल्लेख उपलब्ध होते हैं, वे लगभग ई० सन् ४७५ तदनुसार विक्रम सं० ५३२ के लगभग अर्थात् विक्रम की छठीं शताब्दी पूर्वार्ध के हैं । अतः काल के आधार पर सिद्धसेन को किसी सम्प्रदाय विशेष से नहीं जोड़ा जा सकता क्योंकि उस युग तक न तो सम्प्रदायों का नामकरण हुआ था और न हो वे अस्तित्व में आये थे । मात्र गण, कुल, शाखा आदि का ही प्रचलन था और यह स्पष्ट है कि सिद्धसेन विद्याधर शाखा ( कुल ) के थे ।
क्या सिद्धसेन यापनीय हैं ?
प्रो० ० ए० एन० उपाध्ये ने सिद्धसेन दिवाकर के यापनीय होने के सन्दर्भ में जो तर्क दिये हैं, यहाँ उनकी समोक्षा कर लेना भो अप्रासंगिक नहीं होगा ।
(१) सर्वप्रथम उनका तर्क यह है कि सिद्धसेन दिवाकर के लिए आचार्य हरिभद्र ने श्रुतकेवली विशेषण का प्रयोग किया है और श्रुतकेवली यापनीय आचार्यो का विशेषण रहा है । अतः सिद्धसेन यापनीय हैं । इस सन्दर्भ में हमारा कहना यह है कि श्रुतकेवली विशेषण न केवल यापनीय परम्परा के आचार्यों का अपितु श्वेताम्बर परम्परा के प्राचीन आचार्यों का भी विशेषण रहा है | यदि श्रुतकेवलो विशेषण श्वेताम्बर और यापनीय दोनों ही परम्पराओं में पाया जाता है तो फिर यह निर्णय कर लेना कि सिद्धसेन यापनीय हैं उचित नहीं होगा ।
1. Siddhasena's Nyayavatar and other works.-A. N. upadhye-Introductiou-P. xiii to zviii
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