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________________ २०२ : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय है । पुनः उनकी कृति शाकटायन-व्याकरण से भी इसकी पुष्टि होती है। क्योंकि उसमें भी उन्हें 'यतिग्राम अग्रणी' यह विरुद (विशेषण) दिया गया है। (२) शाकटायन पाल्यकीर्ति द्वारा रचित स्त्री-मुक्ति और केवलि-- भुक्ति-ये दोनों प्रकरण शाकटायन व्याकरण के साथ भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित भी हो चुके हैं। प्रथम प्रकरण में ४५ श्लोकों में स्त्री मुक्ति का समर्थन है और दूसरे प्रकरण में ३४ श्लोकों में केवली के द्वारा भोजन करने (कवलाहार) का समर्थन है। ज्ञातव्य है कि यापनीय सम्प्रदाय श्वेताम्बरों के समान ही स्त्री मुक्ति और केवलि भक्ति को स्वीकार करता था। स्वयं हरिभद्र ने ललितविस्तरा में इन दोनों बातों के समर्थन में 'यापनीयतंत्र' को उद्धृत किया है। अब यापनीयतंत्र अनुपलब्ध है। इन दोनों प्रकरणों में स्त्रीमुक्ति और केवलिभुक्ति के समर्थन के साथसाथ अचेलकत्व का भी समर्थन पाया जाता है। अतः यह स्वतः सिद्ध है कि पाल्यकीर्ति शाकटायन यापनीय थे। क्योंकि यापनीय ही एकमात्र ऐसा सम्प्रदाय था, जो एक ओर अचेलकत्व का समर्थन करता है, तो दूसरी ओर स्त्रीमुक्ति और केवलिभुक्ति का। (३) शाकटायन ने अपने शब्दानुशासन की स्वोपज्ञ अमोघवृत्ति में कालिक सूत्रों के साथ आवश्यक, छेदसूत्र, नियुक्ति आदि के अध्ययन का भी उल्लेख किया है ।२ पण्डित नाथूराम जो प्रेमी के अनुसार “इन ग्रन्थों का जिस प्रकार से उल्लेख किया गया है, उससे ऐसा प्रतीत होता है कि उनके सम्प्रदाय में इन ग्रन्थों के पठन-पाठन का प्रचार था । ये ग्रन्थ दिगम्बर सम्प्रदाय को मान्य नहीं थे, जबकि यापनीय संघ इन ग्रन्थों को मान्य करता था। हम पूर्व में भी इस तथ्य को स्पष्ट कर चुके हैं कि इन नामों से प्रचलित वर्तमान में श्वेताम्बर परम्परा में मान्य आगम ग्रन्थ यापनीय संघ में मान्य रहे हैं। वटकेर, इंद्रनन्दी, अपराजितसूरि आदि अनेक यापनोय आचार्यों ने इनको उद्धृत भी किया गया है। १. देखें-ललितविस्तरा (हरिभद्र), प्रकाशक ऋषभदेव केशरीमल श्वेताम्बर संस्था, रतलाम, पृ० ५७ । ज्ञातव्य है कि यापनीयतंत्र नामक मूल ग्रंथ प्राकृत भाषा में निबद्ध था, वर्त मान में यह ग्रंथ अनुपलब्ध है। २. देखे-सूत्राण्यधीते, नियुक्तीरधीते भाष्याण्यधीते....। शाक्टायनव्याकरणम्, अमोघवृत्ति ४।४।१४० और भी देखें १।२।२०३-२०४ । ३. जैन साहित्य और इतिहास, पं० नाथूराम जी प्रेमी पृ० १५८ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
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