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________________ यापनीय साहित्य : २०१ की तद्भवभु क्ति और केवलिभुक्ति की मान्यताओं का दिगम्बर परम्परा स्पष्ट रूप से विरोध करती है। यहाँ यह कहना भी अप्रासंगिक नहीं होगा कि श्वेताम्बर एवं दिगम्बर परम्परा के विभाजक रेखा के रूप में यही दो सिद्धान्त प्रमुख रहे हैं। प्रसिद्ध तार्किक आचार्य प्रभाचन्द्र ने 'प्रमेयकमलमार्तण्ड' और 'न्याय कूमदचन्द्र' में स्त्रीमुक्ति और केवलिभुक्ति का खण्डन शाकटायन के इन्हीं दो प्रकरणों को पूर्व पक्ष के रूप में रखकर किया है। अतः वे दिगम्बर परम्परा के नहीं हो सकते । यद्यपि श्वेताम्बर परम्परा के वादि वेताल शान्तिसूरि ने अपनी उत्तराध्ययन की टीका में, रत्नप्रभ ने 'रत्नाकरावतारिका'3 में और यशोविजय के 'अध्यात्ममतपरीक्षा तथा 'शास्त्रवार्तासमुच्चय'' को टीका में स्त्रीमुक्ति और केवलिभुक्ति के समर्थन में इन्हीं प्रकरणों की कारिकायें उद्धृत की है, किन्तु इससे यह तो सिद्ध नहीं होता कि वे श्ताम्बर थे, हाँ हम इतना अवश्य कह सकते हैं श्वेताम्बर आचार्यों ने भी स्त्रीमुक्ति और केवलिभक्ति के अपने पक्ष के समर्थन के लिए उनकी कारिकाएँ उद्धृत करके उन्हें अपने पक्ष का समर्थक बताते हुए उनके प्रति सम्मान व्यक्त किया है। शाकटायन द्वारा स्त्रीमुक्ति और केवलीभुक्ति का समर्थन उनके यापनीय होने का सबसे बड़ा प्रमाण है। शाकटायन पाल्यकीर्ति यापनीय थे । इस सम्बन्ध में पण्डित नाथूरामजी प्रेमी ने अपने ग्रन्थ जैनसाहित्य और इतिहास (पृ० १५७-५९)में निम्न तर्क प्रस्तुत किये हैं (१) श्वेताम्बर आचार्य मलयगिरि (लगभग ईसा की १२वीं शतो) ने अपनी नन्दीसूत्र की टीका में उन्हें 'यापनीय यतिग्रामाग्रणो' बताया है। मलयगिरि के इस उल्लेख से उनका यापनीय होना सिद्ध हो जाता १. (अ) प्रमेयकमल मार्तण्ड अनु० (जिनमति) (ब) न्यायकुमुदचन्द्र द्वितीय भाग पृ० १७७-१९९ एवं २५७-२७२ (सं० महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य)पृ० ८५१-७८७ २. श्रीमन्त्युत्तराध्ययनानि (देवचन्द लालभाई), टीका शान्तिसूरी अध्याय २६ ३. रत्नाकरावतारिका ७/५७ भाग ३ पृ०९३-१०१ । ४. अध्यात्ममतपरीक्षा, यशोविजय । ५. शास्त्रवार्ता समुच्चय, टीका यशोविजय । ६. शाकटायनोऽपि यापनीय यतिग्रामग्रणी स्वोपज्ञशब्दानुशासनवृत्तावादी भगवतः स्तुतिमेवमाह श्री वीरमृतं ज्योतिर्नत्वाऽऽदि सर्ववेदसाम् । -नन्दीसूत्र, मलयगिरि टीका, पृ० २३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
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